मंगलवार, 14 अगस्त 2018

विपक्ष के महागठबन्धन की राह में कई बड़ी समस्यायें हैं। सबसे बड़ी समस्या तो क्षेत्रीय दलों के अलम्बरदारों की महत्वाकाँक्षा है। सब प्रधान मंत्री बनना चाहते हैं और कई इसका ऐलान भी करा रहे हैं। सबसे ज्यादा हल्ला बहन जी के समर्थक मचा रहे है जबकि आज की तारीख में लोकसभा में उनका एक सदस्य नहीं है और इसकी भी कुछ गारंटी नहीं है कि सपा से समझौता किये बिना वो कुछ बड़ी जीत हासिल कर लेंगी लेकिन इरादा प्रधान मंत्री बनने का है। इसी तरह ममता बनर्जी हैं।उनकी भी कोई गारंटी नहीं है कि वो राज्य की सत्ता में वापसी कर पायेंगी लेकिन अगर वो विधान सभा चुनाव जीत लेती हैं तो फिर लोक सभा चुनाव में सीधे मुँह किसी से बात ना करेंगी। वैसे भी वो किसी से सीधे मुँह बात नहीं करती हैं। वामपन्थियों को तो फूटी आँख नहीं देख सकती हैं। यू पी में सपा बसपा जैसा उनका सम्बन्ध है लेकिन वो सपा बसपा की तरह हाथ नहीं मिलायेगीं। महागठबंधन में भरोसे के साथी सपा ओर राजद ही हैं जिनके नेता भाजपा के खिलाफ मजबूती से खड़े हैं। लालू प्रसाद यादव जी के जेल में होने के कारण उनके सामने इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। सपा में अगर मुलायम सिंह नेता होते तो गठबन्धन को अपनी शर्तों पर स्वीकारते और फिर भी उनका कोई भरोसा नहीं था कि वो कब अन्दरखाने भाजपा से मिलीभगत कर दूर ना भाग खड़े होते। लेकिन अखिलेश से कोई समस्या होने वाली नहीं है। वे सधे हाथों से अपनी पारी खेल रहें है और विश्वाश है कि लम्बा खेलेंगे। इन सबसे भी बड़ी समस्या गठबन्धन की धुरी स्वयं कान्ग्रेस है। उसके नेता राहुल गाँधी को महागठबन्धन तो अपना नेता मान ही नहीं रहा है कान्ग्रेस के नेता भी उन्हें सीरियसली अपना नेता नहीं मानते हैं। यद्यपि कांग्रेस में नेता ही नेता हैं संगठन का कुछ अता पता नहीं है। राहुल की समस्या ये है कि उनका मुकाबला राजनीति के मंझे हुए योद्धाओं से हो रहा है। सामने मोदी जैसा महारथी है जिसका अमित शाह जैसा कुशल सारथी है जो अपने संगठित रथ के सब पेच कसकर मैदान में उतरता है। दूसरी तरफ राहुल गाँधी हैं जिनका ना कोई सारथी है ना कोई रथ है। जो अभिमन्यू की तरह अकेले चक्रव्यूह तोड़ने के लिये जूझ रहे हैं।उनके पास कोई संगठन शक्त्ति नहीं है। संगठन के नाम पर एक हजूम है जो उनके साथ तमाशगीर की तरह जुटता है और तमाशा खत्म होने पर घर जाकर आराम फरमाता है। क्या ऐसी सूरते हाल में कोई मजबूत गठबन्धन बन सकता है ? कोई गठबन्धन नहीं बन.सकता है। लेकिन जन दबाव इतना है कि गठबन्धन बनेगा और जीतेगा भी ।ये अलग बात है कि जीतने के बाद नेताओं की महत्वाकाँक्षाओं के चलते जनता पार्टी की तरह टूट जाये लेकिन जनता इसमें क्या कर सकती है? लोकतंत्र में कुछ जिम्मेदारी तो नेताओं की भी बनती है। हमारे नेता जब अपनी जिम्मेदारी समझने लगेंगे तो कुछ समस्या नहीं आयेगी। उम्मीद करें नेता अपनी जिम्मेदारी निभायेंगे। उम्मीद के अलावा हम कर भी क्या सकते है।

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