मंगलवार, 25 सितंबर 2018

ताजिये

     तैमूर लंग, हज़रते हुसैन का बहुत बड़ा शैदाई था, वह हज़रत हुसैन की मज़ार पर पाबंदी से जाया करता था । तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया, वह भारत में ही था तभी माहे मुहर्रम (अरबी कैलेंडर का पहला महीना, इसी महीने में हज़रत हुसैन इराक़ में करबला नामी रेगिस्तान में तीन दिन के भूखे प्यासे शहीद कर दिए गए थे) शुरू हो गया । करबला से दूरी तैमूर को खलने लगी क्यूं कि तब हवाई जहाह नहीं था कि वह कुछ घंटों में उड़कर पहुंच जाता इसलिए बहुत या कुछ हद तक उदास और ग़मगीन था ।
तैमूर यह उदासी उसके मंत्रियों, सिपहसालारों, दरबारियों से देखी न गई, उन सबने बादशाह को ख़ुश करने की तरक़ीब निकाली । और हज़रते हुसैन और उनके बड़े भाई हसन की मज़ार पर बने मीनारों का आकार तय्यार किया (कुछ जगह यह भी लिखा है कि ऐसा करने का हुक्म ख़ुद तैमूर ने जारी किया था) इन्हीं बांस की खपच्चियों से बनी रंगीन काग़ज़ से लिपटी नकली मीनारों को ताजिये का नाम दिया गया ।
चूंकि इसकी शुरुआत दरबारी थी इसलिए इसमें ट्रेंड आर्मी और उस दौर के हथियारों का भी ख़ूब समावेश था, प्रत्येक दरबारी बादशाह को खुश करने हेतु ख़ूबसूरत और ऊँचा ताजिया और पीछे अपनी ट्रेंड लश्कर (आर्मी) लेकर बादशाह के दरबार में हाज़िरी देता था । इस तरह ताजिये के बहाने दरबारी बादशाह के सामने अपनी शक्ति शौर्य और बैभव का प्रदर्शन करते थे । प्रदर्शन का एक फायदा ये भी होता था कि इसी बहाने फौज अपने पैर पैतरों का अभ्यास करके ऐक्टिव हो जाती थी । यह बिलकुल उसी तरह था जैसे आज पंद्रह अगस्त को सैन्य परेड होती है, सैन्य शक्ति का प्रदर्शन होता है ।
आज भी यही होता है । ताजिया बनाने की विधि वही है, आकार का कंपटीशन वही है, ताजिये के पीछे अब लश्कर तो नहीं होती मगर कुछ ट्रेंड तलवारबाज़, लठबाज़ जैसे कलाकार लोग अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए चलते हैं ।
ताजिया बनाने का काम किसी बढ़ई का नहीं होता था बल्कि इसके लिए कुछ लोग मुंतखब होते थे, बाद में उनके यहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी ताजिया बनता रहा । मेरे यहाँ ताजिया बनाने का काम अमूमन फकीर बिरादरी के लोग करते थे जिनका सरनेम शाह होता है, ताजिये पर आने वाला सारा चढ़ावा सारी कमाई उन्हीं की होती थी ।
ताजिया बनाकर गाँव में किसी चबूतरे पर रखा जाता जिसे चौक या चौकी कहा जाता है । मुहर्रम की पहली ही तरीख से उस चबूतरे पर गांव भर के लोग जमा होते अपनी अपनी कला का प्रदर्शन करते थे । कुछ लोग उन्हीं में से ट्रेनर का भी काम करते थे और नई उम्र के शौकीन लड़के लाठी, फरसा, भाला, गतका आदि चलाना सीखते और अंत में प्रदर्शन करते थे । दसवीं तक उसी चौक पर हज़रत हुसैन के अक़ीदतमंद मलीदे का फातेहा दिलाते और बाद में वही मलीदा बतौरे तबर्रुक (प्रषाद) ग्रहण करते थे । फिर दसवीं तारीख को मसनूई कर्बला (जहाँ ताजिये को दफन किया जाता है) वहाँ बड़ा सा मेला लगता, बहुत से दूकानदार आते, लड़कियाँ, औरतें, बच्चे ईद और दशहरे के मेले की तरह जमकर ख़रीदारी करते । मर्द अपने शौर्य का जमकर प्रदर्शन करते और देर रात ताजिये को वहीं दफना दिया जाता ।
मैने पहले भी बताया ताजिये की शुरुआत दरबारी और सरकारी तौर पर हुई थी चूंकि दरबारियों और सन्य सरदारों में तब हिन्दुओं की संख्या भी ख़ूब थी इसी लिए आज भी ताजियादारी में हिन्दुओं की संख्या कहीं कहीं मुसलमानों से भी अधिक है । कुछ ब्राम्हण स्वयं को हुसैनी ब्राम्हण कहते हैं और तरह तरह के तर्क देते हैं पर सच ये है कि यह हुसैनी ब्राम्हण न तो अरब से आये हैं न करबला गए हैं बल्कि यह भी दरबारी हैं, दरअसल जो लोग ताजियादारी वाली परेड में बादशाह को प्रभावित कर ले जाते थे उन्हें हुसैनी कहकर सम्मान दिया जाता था ।
कहने का तात्पर्य ये है कि ताजिया आज भले ही हिन्दुओं मुसलमानों की आस्था से जुड़ गया हो परंतु यह धार्मिक कृत्य नहीं है वरन दरबारी परंपरा है जो सैकड़ों साल से चली आ रही है ।
नोट- मेरा मकसद किसी की दिलआज़ारी करना नहीं है । और मेरी बात अंतिम सत्य हो ये भी ज़रूरी नहीं है । मैने अपने जनरल नॉलेज के हिसाब से लिखा है यदि आपको इससे बेहतर फैक्ट पता हैं तो कमेंट में अपनी राय रख सकते हैं ।
                                                                                   ----------- अबरार खान      
            

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