रविवार, 15 सितंबर 2019

कविता -उलटे लटक रहे चमगादड़

उलटे लटक रहे चमगादड़ 
दुनिया उलटी बता रहे हैं |
ढोंगी वेश भरे साधू का 
सबको कपटी बता रहे हैं |

उल्लू बैठा हुआ शीर्ष पर 
वानर उछल कूद करते हैं |
गऊमाता के पुत्र बैल सब 
चरते खेत नहीं डरते हैं |

डर मजदूर किसानों में हैं 
बे रुजगार जवानों में है |
कारोबारी डरे हुए सब  
खाली पड़े खजानों में है |

उल्लू को दिन पसंद नहीं है 
वो कहता है रात रहेगी |
चमगादड़ भी बता रहे हैं 
उलटी सबकी खाट सजेगी |

जो भी सीधी राह चलेगा 
या फिर सीधी बात कहेगा |
समझो उसकी खैर नहीं है 
जो न दिन को रात कहेगा |

माना बदला हुआ वक्त है 
बुद्धिजीवी बदले सारे |
लेकिन दिन को रात,रात को
दिन बोलेंगे कैसे प्यारे ?

दिन तो दिन होता है उजला 
दिखे नहीं कुछ धुंधला धुंधला |
रात अंधेरी को दिन बोले 
धूर्त कोई बुद्धि का कंगला |

ज्यादा नहीं मगर इतनी तो 
समझ हमारे पास रही है |
तुमने कहा रात है अच्छी 
देखें कितनी बात सही है ?

ऐसा क्या हो गया जो दिन 
से अच्छी सच्ची रात हो गयी |
खुद को सच्चा कहने वाले 
झूठों की बारात हो गयी |

कोई तो होगा जो अब भी 
सच की हक़ की बात करेगा |
झूठों की इस बड़ी सभा में 
सच कहने से नहीं डरेगा |

जो बोलेगा रात है काली 
उल्लू करता है रखवाली |
चमगादड़ों लटक जाने से 
बात नहीं है बनने वाली |

हम लाएंगे नया सवेरा 
कायम क्यूँ ये रहे अंधेरा ?
सिर्फ उजाले में तय होगा 
किसका तंग सोच का घेरा |


















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