गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

 कान्तिमोहन सोज़

आज़ादी के बाद के फ़िल्मी गीतकार -- राजा मेहदी अली खान
राजा का शुमार संख्या में कम और बेहद मक़बूल गीत लिखनेवालों में किया जाता है। उन्होंने 20 साल के अरसे में चार सौ से भी कम गीत लिखे, लेकिन उनके कम से कम सौ गीत मक़बूल और 50 गीत बेहद मक़बूल हुए। बहुत कम गीतकारों को उन जैसी लोकप्रियता हासिल हुई।
राजा का जन्म 1928 में हुआ माना जाता है, हालांकि हमें इसमें शक है, जिसके बारे मैं हम आगे लिखेंगे। उनके पिता का नाम राजा ग़ालिब मेहदी ख़ान था और वो बहावलपुर रियासत के दीवान या मुख्य मंत्री थे। बहावलपुर राजस्थान में जोधपुर ज़िले के ऊपर, भारत-पाक सीमा से 75 मील की दूरी पर एक बड़ी रियासत थी, जो कई बरस स्वतंत्र रहने के बाद 1955 में पाकिस्तान में शामिल हो गई। इसके तत्कालीन नवाब ने पाकिस्तान आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई थी और अपनी अपार संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा उस देश को समर्पित कर दिया। ब्रिटिश सरकार और बहावलपुर के बीच हुई संधि के मुताबिक़ रियासत को अपने सिक्के खुद ढालने का अधिकार था और ब्रिटिश क्षेत्र में प्रविष्ट होने पर नवाब को 17 तोपों की सलामी दी जाती थी। यह सब बताने के पीछे मंशा इस तथ्य पर बल देने का है कि राजा मेहदी अली ख़ान एक बड़े और बारसूक घर के चश्मे-चिराग़ थे। आम तौर पर माना जाता है कि राजा जब सिर्फ़ चार साल के थे, तभी उनके वालिद इंतक़ाल फ़रमा गए और उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी मां, हेबे साहिबा और मामा, ज़फ़र अली खान पर आ गई। उनकी मां उस दौर की अग्रणी पत्रकार, अफ़सानानिगार और शायरा थीं। उनका शेरी मज़मूआ, ‘नवाए-हरम’, यानी अंत:पुर की आवाज़, लाहौर के मशहूर प्रकाशक, ताज कंपनी लिमिटेड ने छापा था और ‘रेख्ता’ में सुरक्षित है जहां उसे इत्मीनान से पढ़ा जा सकता है। उन्होंने उसे ‘ख़ुदाए-लाज़याल’ यानी अविनाशी परमेश्वर को समर्पित किया है। इस मज़मूए में उनकी नज़्में, ग़ज़लें और हम्दें शामिल हैं जिससे उनके शेरी रुझानात का पता चलता है। उनकी परवरिश में उनके पिता के दोस्त और मां की शायरी के प्रशंसक, अल्लामा इक़बाल ने भी दिलचस्पी ली जिससे उन्हें बहुत फ़ायदा पहुंचा।
उनके मामूजान, ज़फर अली खान भी मामूली हैसियत के आदमी न थे। इक़बाल और जिन्ना के बाद जिन लोगों ने पाकिस्तान के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाई उनमें उनका नाम भी शामिल है। वो तेजस्वी वक्ता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ आग उगलनेवाले उर्दू शायर थे जिन्हें अवाम के बड़े हिस्से एहतराम और तहम्मुल के साथ सुनते थे। वो मशहूर और प्रभावशाली दैनिक ‘ज़मींदार’ के स्वामी और संपादक थे और ‘पाकिस्तानी पत्रकारिता के जनक’ तस्लीम किए जाते हैं। ‘ज़मींदार’ से मुराद जागीरदार या ताल्लुक़ेदार जैसे अमीरों से नहीं बल्कि आम दहकानों या किसानों से थी। राजा उस इलाक़े में रहनेवाले जनजुआ ख़ानदान में पैदा हुए थे जो अपनी सिपहगिरी और दिलेरी के लिए जाना जाता था। जनजुआ, दरअसल जोधपुर और बीकानेर आदि इलाक़ों में रहनेवाले जुझारू राठौर राजपूतों के वंशज है और 10वीं सदी में मोहम्मद ग़ोरी से परास्त होने के बाद उन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया और फ़ौजों में भर्ती हो गए, उनमें से कुछ ज़मीन पर जा बसे और काश्तकारी का पेशा अपना लिया। इस फ़िर्के के लोग पाकिस्तान के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में ख़ास मुक़ाम रखते हैं। जो लोग फ़ैज़ अहमद फैज की जीवनी में दिलचस्पी रखते हैं, उनकी जानकारी के लिए बता दें कि फ़ैज़ पर चलाए गए ‘रावलपिंडी केस’ के एक सह-अभियुक्त ब्रिएडियर जनजुआ भी इसी क़ौम से ताल्लुक़ रखते थे।
उनकी शिक्षा लाहौर के मशहूर एचिसन कालेज में हुई। इस कालेज की स्थापना 1886 में हुई थी और तब से आज तक इसकी गणना उस देश के सर्वोत्तम शिक्षा संस्थानों में की जाती है। इसका पाठ्यक्रम और वातावरण ऐसा है जिसमें किसी छात्र का चौतरफ़ा विकास मुमकिन है। पाकिस्तान के न जाने कितने राजनीतिज्ञ, प्रशासक, अदीब और खिलाड़ी इसी कालेज से पढ़कर निकले हैं। 300 एकड़ पर फैला हुआ यह विराट कालेज देश के सबसे बड़े और महंगे शिक्षा संस्थानों में गिना जाता है और यहाँ दाख़िला मिलना गौरव की बात समझा जाता है। इसमें कक्षा एक से तेरह तक की शिक्षा का प्रावधान है।
हेबे साहिबा, ज़फ़र अली ख़ान और इक़बाल—इन तीन शायरों की सरपरस्ती में पलने की वजह से किशोर मेहदी अली को जल्द ही शायरी का चस्का लग गया और एचिसन कालेज के खुले माहौल में उनका यह शौक़ परवान चढ़ने लगा। कालेज की शिक्षा पूरी करने के बाद वो कई रिसालों के संपादकीय विभाग का काम देखने लगे। इनमें ‘आलमगीर’, ‘ख़ैयाम’ ’तालीमे-निसवां’ और ‘फूल’ प्रमुख थीं। ये सभी अदबी रिसाले न थे बल्कि इनमें से एकाध का संबंध नारी शिक्षा और विज्ञान से लेकर बाल साहित्य तक था, जिससे उनकी रुचि की विविधता का परिचय मिलता है। रुचि की यह विविधता उनके फिल्मी कैरियर में बड़ी सहायक साबित हुई। ये सब रिसाले लाहौर से निकलते थे जो आज़ादी से पहले भारत के प्रमुख शहरों में शुमार किया जाता था और उत्तर भारत की सांस्कृतिक गतिविधि का सबसे बड़ा केंद्र था।
रोज़गार की तलाश में वो लाहौर से दिल्ली आए और उनकी नियुक्ति आल इंडिया रेडियो के दिल्ली केंद्र में हो गई। उस दौर में उर्दू के मक़बूल व्यंग्यकार, पतरस बुखारी केंद्र के निदेशक थे और उन्होंने हिंदी और उर्दू के दमकते हुए सितारे वहां जमा कर रखे थे। इन्हीं हीरों में एक उर्दू के अमर अदीब, सआदत हसन मंटो भी थे, जिनके रेडियो प्ले तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे थे। मंटो से उनका परिचय जल्दी ही दोस्ती में बदल गया, यहाँ तक कि दोनों हमप्याला-हमनिवाला हो गए।
आखिरकार, रेडियो की नौकरी छोड़कर मंटो फिल्म-जगत में आ गए और पहले दिन से ही जुगत बिठाने लगे कि किसी तरह अपने दोस्त को दिल्ली से बंबई बुला लें। फिल्मों की दुनिया में मंटो का बड़ा रुतबा था। उन्होंने अपने दोस्त और उस दौर में फ़िल्माकाश के सबसे चमकीले सितारे, अशोक कुमार से बात की और उन्हें बंबई आने की दावत दे दी। मंटो के किसी दोस्त के लिए मंटो की दावत ठुकराना मुमकिन न था। वो जब ठान लेता था तो सामनेवाले से मनवा कर ही दम लेता था। लिहााज़ा, रेडियो की नौकरी छोडकर राजा मेहदी अली खान बंबई जा पहुंचे और मंटो के साथ ही रहने लगे। यह बात 1946 की है। अगर यह माना जाय कि प्रचलित धारणा के अनुसार उनका जन्म 1928 में हुआ था तो इसका मतलब यह हुआ कि फ़िल्म जगत में प्रवेश के वक़्त उनकी उम्र केवल 18 साल थी जो पहली ही नज़र में ग़लत लगता है। अठारह साल तो कालेज से निकलते-निकलते बीत जाते हैं; फिर चार-चार रिसालों के संपादकीय विभाग में काम। उसके बाद आल इंडिया रेडियो में नौकरी और मिंटो से घनिष्ठता, जो उनसे उम्र में सोलह साल बड़े थे। ताहिरा से निकाह और सिर्फ़ 19 बरस की उम्र में पाकिस्तान न जाकर भारत में ही रहने का फ़ैसला! वो भी ऐसे हालात में जबकि उनके सबसे बड़े सरपरस्त, मामू ज़फ़र अली ख़ान, दोस्त संगीतनिर्देशक ग़ुलाम हैदर और दीगर अहबाब पाकिस्तान चले गए हों और बंबई में उनका सबसे बड़ा सहारा, मंटो 'जाऊं जाऊं' कर रहा हो और बंबई ख़ून के दरिया में रोज़ डुबकियां लगा रहा हो, किसी 18-19 साल के लड़के के लिए मुमकिन नहीं लगता। बेशक इसे वतन की वफ़ादारी और दिलेरी की मिसाल तो ज़रूर माना जा सकता है, और मानना चाहिए, लेकिन भावुक होकर तालियां बजाने के बजाय सोचने की ज़रूरत है कि क्या यह फ़ैसला लेते वक़्त उनकी उम्र वाक़ई 18-19 साल ही थी।
पूछा जा सकता है कि उनकी उम्र 18 साल थी या 28 साल, इससे क्या फ़र्क पड़ता है? हमारा उत्तर है कि ‘कोई फ़र्क नहीं पड़ता’ और न हम इस प्रसंग को इस वजह से तूल ही दे रहे हैं। हम तो यह प्रसंग उठाकर अंतर्जाल की इस कमज़ोरी की तरफ़ इशारा करना चाहते हैं कि इसके प्रयोक्ता अक्सर ‘मक्षिका स्थाने मक्षिका’ के न्याय से काम लेते हैं, जिसकी वजह से एक से हुई ग़लती अनेक से दुहराई जाती है और इतिहास को विकृत करती है, जिससे बचना ज़रूरी है। इसके लिए ज़रूरी है कि आप अपनी जिज्ञासा और प्रश्नात्मकता को जगाए रखें। प्रश्न करें, अनुसंधान करें और तथ्य तक पहुंचनेे से पहले अनुमान और कल्पना का सहारा लें, लेकिन अपना दिमाग़ खुला रखें ताकि ज़रूरत पड़ने पर आप तथ्यों में वांछित सुधार कर सकें। इससे आपकी और इस माध्यम दोनों की विश्वसनीयता में इजाफ़ा होगा।
हमारा अनुमान है कि यह छापे की ग़लती हो सकती है। मुमकिन है कि किसी की असावधानी से एक की जगह दो लिखा गया हो और फिर अंतर्जाल के चलन के मुताबिक़ उह ग़लती दुहराई जाती रही हो और इसने ‘प्रचलित धारणा’ का रूप ले लिया हो। यदि ऐसा हो तो इसे सुधारना मुश्किल नहीं। हालांकि अनुसंधान का यह काम इस उम्र में हमारे बस का तो नहीं, लेकिन हमें आशा है कि कोई युवा अनुसंधाता एचिसन कालेज के रिकार्ड ज़रूर खंगालेगा और फ़िल्मों के इस महत्वपूर्ण गीतकार की सही जन्मतिथि खोज निकालेगा। तब तक हमें अनुमान लगाने दीजिए कि उनका जन्म 1928 में नहीं बल्कि 1918 में हुआ था और फिल्मों में प्रवेश के वक़्त वो 18 साल के नहीं बल्कि 28 साल के थे, वो मंटो से 16 नहीं बल्कि 6 साल छोटे थे और मृत्यु के समय उनकी उम्र 38 नहीं बल्कि 48 वर्ष थी। यह समझना बेहद ज़रूरी है कि कल हमारा अनुमान अगर सच निकलता है तो इससे मेहदी अली खान के योगदान और महत्व पर रत्ती-भर फर्क नहीं पड़ेगा। इस प्रसंग का समापन करने से पहले हम यह सूचित करना ज़रूरी समझते हैं कि ऐसी अटकल लगानेवाले हम पहले या अंतिम व्यक्ति नहीं। हमें याद आता है कि हमारी नज़र से राहुल देशपांडे का एक लेख गुज़रा था जिसमें उन्होंने मेहदी अली ख़ान के बारे में प्रचलित धारणाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाया था और अनुमान लगाया था कि उनका जन्म दसेक साल पहले हुआ होगा।
अंतर्जाल भी अजीब शै है। इसकी माया समझना आसान नहीं। इसमें कुछ भी नहीं है और सब-कुछ है; ज़रूरत है धीरज और लगन से लगे रहने की और इसमें दी गई सामग्री की बारबार जांच-परख करने की। ये सब लिख चुकने के बाद पाकिस्तान के प्रख्यात अंग्रेज़ी दैनिक ‘डान’ का एक लेख हमारे हाथ लगा, जिसके शीर्षक का अनुवाद होगा ‘हंसी के पीछे का दर्द’ जिसके लेखक रऊफ़ पारेख हैं। उनके मुताबिक़ राजा का जन्म 1913 के सितंबर महीने की 23 तारीख को हुआ। उनकी मृत्यु 27 जुलाई 1966 को हुई नकि 29 जुलाई को, जैसाकि आम तौर पर माना गया है। हमें यह ठीक लगता है, हालांकि हमारे अनुमान की तुलना में राजा की उम्र कुछ और बढ़ा देता है। इसका मतलब यह हुआ कि विभाजन के वक़्त उनकी उम्र 19 नहीं बल्कि 32 साल थी और वो मंटो से केवल तीन साल छोटे थे। उनकी मृत्यु 38 साल की उम्र में नहीं बल्कि 51 साल में हुई थी। उर्दू के प्रख्यात समीक्षक डाक्टर वज़ीर आग़ा के हवाले से रऊफ़ के लेख से हमें कुछ और जानकारी भी मिलती है। राजा के दादा पंजाब के ज़िला झेलम में स्थित करीमाबाद नाम की एक जागीर के मालिक थे। यह जगह वजीराबाद के नज़दीक पड़ती है। एचिसन कॉलेज से एफ ए करने के बाद, पिता की मृत्यु के कारण वो अपनी पढ़ाई आगे जारी नहीं रख पाए और उन्हें जीविका की तलाश में लाहोर जाना पड़ा जो उत्तर भारत की सांस्कृतिक गतिविधि का सबसे बड़ा केंद्र था। यहां से निकलनेवाली दो पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में उन्हें काम मिला। रऊफ़ ने केवल दो ही रिसालों ‘फूल’ और ‘तहजीबे-निसिया’ का ही उल्लेख किया है, लेकिन अंतर्जाल पर दो और रिसालों का उल्लेख मिलता है, जिनके नाम ‘खय्याम और ‘आलमगीर’ हैं।
मंटो ने राजा की मुलाक़ात अशोक कुमार से कराई, जिन्होंने उन्हें शशधर मुखर्जी के पास भेजा। मुखर्जी और राजकपूर उस दौर के सबसे बड़े फिल्मनिर्माताओं मे शुमार किए जाते थे। मंटो और अशोककुमार की सिफ़ारिश पर उन्हें मुखर्जी के फ़िल्मिस्तान स्टूडिओ में नौकरी तो फ़ौरन मिल गई लेकिन गीत लिखने का काम नहीं मिल सका। उन दिनों ‘आठ दिन’ फ़िल्म की शूटिंग चल रही थी। लिहाज़ा उन्हें उस फ़िल्म के संवाद लिखने के काम पर लगा दिया गया। उस दौर में लेखक की स्वतंत्र हैसियत नहीं होती थी बल्कि वो दूसरों की ही तरह स्टुडियो का वेतनभोगी कर्मचारी था। उसे वो काम करना होता था जो उसे दिया जाता था। शायद मुखर्जी को लगा हो कि राजा का वेतन ज़्यादा है, इसलिए इनसे कुछ और काम भी कराया जा सकता है। इसलिए उन्हें फ़िल्म में एक भूमिका भी दी गई। यह कोई ग़ैररमामूली वाकया न था और उनसे पहले बंबई टाकीज़ में दो बड़े गीतकारों, आरज़ू लखनवी और केदार शर्मा के साथ भी पेश आ चुका था। जिन लोगों ने ‘आठ दिन’ देखी है उनका खयाल है कि डीलडौल, सुंदर शख़्सियत और सहज हास्यप्रियता के चलते राजा एक हास्य अभिनेता के तौर पर फ़िट थे और ज़रूर हिट हो जाते। लेकिन अगले ही बरस बनी फ़िल्मिस्तान की ‘दो भाई’ शीर्षक फिल्म में उन्हें गीत-लेखन का काम मिल गया और फिर उन्हें पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।
‘दो भाई’ गीतकार मेहदी अली खान के अलावा मशहूर गायिका, गीता राय की भी पहली ही फ़िल्म थी जो निर्देशक गुरुदत्त से शादी के बाद गीता दत्त के नाम से जानी गईं। इसके संगीतनिर्देशक सचिन देबबर्मन थे जिन्हें लोग आदरवश ‘सचिंनदा’ कहकर बुलाते थे। इस फ़िल्म के दो गीत इतने मक़बूल हुए कि लोगों को फिल्म के अन्य गीतों की याद ही न रही। पहला गीत है ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया। मैं प्रेम में सबकुछ हार गई बेदर्द ज़माना जीत गया।’ जो आपमें से अधिकांश लोगों ने सुना होगा। दूसरा गीत भी गीता राय की ही आवाज़ में है ‘याद करोगे याद करोगे एक दिन हमको याद करोगे। तड़पोगे फ़रियाद करोगे एक दिन हमको याद करोगे॥‘ राजा के अल्फ़ाज़ की सादगी, सचिनदा का करुण-मधुर संगीत और गीताराय की दर्दभरी आवाज़—सुननेवाले तो पागल ही हो गए। 1951 में मैं मेट्रिकुलेशन की तैयारी कर रहा था। तब तक इस गीत की लोकप्रियता अपने शिखर पर जा पहुंची थी और सड़कों से लेकर कक्षाओं तक में इसकी गूंज सुनाई देना ऐसा रोमांचक अनुभव था जो मुझे अब तक याद है।
कविता की ‘सादगी और पुरकारी’ कि बेहतरीन मिसाल ढूंढनी हो तो राजा की राजधानी छोडकर कहीं और जाने कि ज़रूरत नहीं। उनकी यह सलाहियत पहली बार 1947 नें प्रकट हुई और 1966 में उनके इंतिक़ाल तक बनी रही। उर्दू के बड़े शायर और हिन्दी फ़िल्मों के मशहूर संवाद लेखक अख़्तर उल ईमान ने ठीक ही लिखा है ‘ये राजा खेलखेल में क्या ग़ज़ब लिख देता था। हमें जगह चाहिए, तनहाई चाहिए और सोच के लिए वक़्त चाहिए, राजा का ज़ेहन तजुरबात का वसीअ समुंदर था’।
‘दो भाई’ में आठ गीत हैं और सब राजा ने ही लिखे हैं। इस फ़िल्म का एक और गीत उस जमाने में बहुत मशहूर था जिसका मुखड़ा मुझे अब तक याद है, ‘मुझे छोड़ पिया परदेस गए पिया लौटके आना भूल गए। मुरझा गई होठों की कलियां सब हंसना-हंसाना भूल गए॥‘ इसके अलावा, राजा के लिखे कई गीत मक़बूल भी हुए और जानकारों को भी पसंद आए। गीत के क्षैतिज पर एक नया सितारा उदित हो रहा था जो धूमकेतु तो नहीं था, लेकिन उसकी चमक अलग से नज़र आती थी।
1948 में ‘शहीद’ आई और उसके गीतों की पूरे देश में धूम मच गयी। इसमें तीन गीत क़मर जलालाबादी ने लिखे थे जो काफ़ी मक़बूल हुए। बाक़ी सभी गीत राजा ने लिखे थे जिनमें फिल्म का शीर्षक गीत ‘वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हों’ भी था जिसने लोकप्रियता के पिछले सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। मुझे याद है कि मैंने ये फ़िल्म मेरठ के निशात टाकीज़ में देखी थी। मैं उस वक़्त बारह-तेरह वर्ष का किशोर था, तो भी फिल्म की कई बातें मेरे मन पर अमिट छाप अंकित कर गईं। खलनायक की भूमिका में चन्द्र मोहन का अभिनय और पूरे स्क्रीन पर फैली उनकी वो आँखें कौन भूल सकता है? खलनायक के हृदयपरिवर्तन ने उसके सारे पाप धो डाले और वो खलनायक से जनता का चहेता नायक बन गया।
यह चंद्रमोहन की अंतिम फ़िल्म साबित हुई। कुछ ही दिन बाद, अधिक शराब पीने के कारण उनकी मृत्यु हो गई। उन्होने ज़्यादा फ़िल्मों में अभिनय नहीं किया, लेकिन उन सबमें उनकी भूमिका असाधारण और स्मरणीय रही। ‘शहीद’ में तो उनका अभिनय पराकाष्ठा पर था ही लेकिन पुराने सिनेप्रेमी महबूब की फ़िल्म ‘रोटी’ में उनकी भूमिका को अभी तक याद करते हैं। ‘शहीद’ में संगीत गुलाम हैदर ने दिया था उस दौर के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण संगीतनिर्देशक थे। दरअसल, नूरजहां को ‘मलिकाए-तरुन्नम’ बनाने में उनका भारी योगदान था। जब नूरजहां पाकिस्तान चली गईं तो एक बार तो महिला-पार्श्वगायन में शून्य सा हो गया, लेकिन गुलाम हैदर ने उस शून्य को पहले शमशाद बेगम और फिर लता मंगेशकर की मदद से भरने में अग्रणी भूमिका निभाई, जिसके लिए वो हमेशा याद किए जाएंगे।
लता तब छोटी ही थीं और उनकी आवाज़ बच्चों जैसी थी, जो शशधर जैसे बड़े निर्माताओं को बिलकुल पसंद नहीं आयी; जब मुखर्जी ने उन्हें काम देने से इन्कार ही कर दिया तो हैदर ने उन्हें झिड़कते हुए कहा था, एक दिन यह लड़की सबको पीछे छोड़ जायगी और तुम इसके पीछे भागते फिरोगे। उनकी भविष्यवाणी सच साबित होने में देर नहीं लगी, लेकिन गुलाम हैदर जल्दी में थे। विभाजन के बाद वो पाकिस्तान चले गए, जहां तीन-चार साल बाद उनकी मृत्यु हो गई। लता ने अपने एक इंटरव्यू में इस वाक़ए का ज़िक्र किया है।
इस फ़िल्म का शीर्षगीत मक़बूल तो बेहद हुआ, लेकिन इसके बोल अंतर्जाल पर आसानी से उपलब्ध नहीं होते, इसलिए मैं अपनी याददाश्त के भरोसे इस लंबे गीत की कुछ पंक्तियाँ यहाँ दे रहा हूं:
शहीद तेरी मौत ही तेरे वतन की ज़िंदगी
तेरे लहू से जाग उठेगी इस चमन की ज़िंदगी
खिलेंगे फूल उस जगह पे तू जहां शहीद हो
वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो।
पुकारते हैं ये ज़मीनों-आस्मां शहीद हो।
यह गीत खान मस्ताना और मोहम्मद रफ़ी ने गाया है। खान मस्ताना का असली नाम हफीज़ ख़ान था। वो 40 के दशक के मशहूर सह-अभिनेता, संगीत निर्देशक और गायक थे। 1943 में आई मशहूर फ़िल्म ‘किस्मत’ में कवि प्रदीप रचित गाना ‘दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है’ उन्होंने ही गाया था।
इस फिल्म में राजा का एक और गीत है ‘आ जा बेदर्दी बलमा’ जो गीता राय की मदमाती आवाज़ में अंतर्जाल पर उपलब्ध है और सुनने लायक़ है। लेकिन ‘शहीद’ में राजा के एक विशेष गीत का ज़िक्र किए बिना इस प्रसंग को समाप्त नहीं किया जा सकता ‘टोडी टोडी बच्चे रे तेरी ऐसी की तैसी’। टोडी लफ़्ज़ भारतीय समाज के उन आला अफसरों और प्रभावशाली व्यक्तियों के लिए होता था जो आँख मूंदकर ब्रिटिश शासकों का समर्थन करते थे। हर शहर में एकाध सज्जन ऐसे ज़रूर होते थे। आज के भारत में इस गीत के प्रभाव की कल्पना दुष्कर है। ‘टोडी’ शब्द ‘शहीद’ के बाद एक लोकप्रचलित गाली हो गया था। हमारी भी एक छोटी सी टोली थी जो क़स्बे में किसी ‘टोडी’ के प्रवेश करते ही इस गीत को गाते हुए उसके पीछे लग जाती थी और वहाँ उसका रहना दूभर कर देती थी। एक अकेला गीत सामाजिक जीवन को किस प्रकार और किस क़दर प्रभावित कर सकता है, यह गीत उसकी बेहतरीन मिसाल है।
राजा का यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि फ़िल्म उद्योग उनसे ऐसे ही चटपटे और अटपटे गीतों की मांग करने लगा और स्वभाव से नटखट और चुलबुले राजा को यह मांग कबूल करने में कोई समस्या नहीं हुई। उन्होंने थोक के भाव से ऐसे गीत लिखे और वो बेहद लोकप्रिय भी हुए। इस विषय पर लिखने लगें तो यह लेख कभी पूरा ही नहीं होगा, इसलिए कुछ बेहद मक़बूल गीतों के मुखड़े बानगी के तौर पर देकर आगे बढ़ जाना ही उचित होगा
*‘दिल का ये इंजन सीटियां मारे
आजा सजन आज लाइन किलियर है’।
*’सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई
जो की थी लड़ाई तो मैं क्या करूं?’
*‘लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठाकर दौड़ा’।
*’दिल की मुर्ग़ी चिल्लाई’।
*’दुनिया की हालत नरम नरम
हलवा छोड़ो पूरी छोड़ो
भाजिया खालो गरमगरम’।
*’तेरा गोरागोरा गाल हमको एकदम पसंद है’।
*’बैठे रहो जोरू के पास
बाक़ी दुनिया सब बकवास’।
*’अजब पैसे का फंडा है
अजब पैसे का चक्कर है
जहां देखो वहां इंसान की
पैसे से टक्कर है’।
इस तरह के हल्के-फुल्के और अटपटे गीत सदा से लिखे जाते रहे हैं और सहगल समेत सभी प्रमुख गायकों ने समयसमय पर उन्हें अपना स्वर दिया है। राजा से पहले केदार शर्मा, पी एल संतोषी और नरेंद्र शर्मा ने ऐसे गीतों की रचना की है और बाद में शेवन रिज़वी जैसे गीतकारों ने राजा की परंपरा को आगे बढ़ाया। राजा का विशिष्ट योगदान यह है कि उन्होने गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से ऐसे चुलबुले और चटपटे गीतों को एक स्वतंत्र विधा का दर्जा दे दिया और हिन्दी फ़िल्म में उसका बाज़ार तैयार कर दिया।
शहीद के बाद फ़िल्म उद्योग में राजा का सिक्का जम गया। गीतकार के रूप में उनकी मांग अचानक बहुत बढ़ गई और बड़े से बड़े निर्माता-निर्देशक उनसे गीत लिखवाने को लालायित हो गए। उस वर्ष, यानी 1948 में, उन्होंने ‘शहीद’ सहित चार फ़िल्मोंं के गीत लिखे और सारे गीत हिट और उनमें से कुछ सुपरहिट हुए। शहीद से पहले, वो एक अदीब की हैसियत से तो उर्दू अदब में अपनी जगह बना चुके थे, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर उनका संघर्ष जारी था। अब यह मोर्चा भी फ़तह हो गया और उनके अच्छे दिन शुरू हुए।
वो खानेपीने और पहनने के शौक़ीन थे और यारबाश ऐसे कि ‘हमे-यारां दोज़ख हमेयारां बहिश्त’। खानदानी रईस थे, हाथ खोलकर खर्च करते थे और हाथ के साथ दोस्तों के लिए अपना दिल और दस्तरखान भी खुला रखते थे। महफ़िल में बुलबुल की तरह चहकते थे और अपने चंचल और हंसमुख स्वभाव के कारण हरदिलअज़ीज़। बच्चों के लिए लिखते थे और उन पर जान छिड़कते थे। जरूरतमंदों की मदद इस तरह करते थे कि दायां मदद कर रहा है तो बांए हाथ को पता न चले। उनकी बीवी, ताहिरा, नवाबज़ादी थीं। सुशिक्षित और सुसंकृत थीं और अपने शौहर की ही तरह मेहमाननवाज़ भी। बच्चा कोई नहीं हुआ और न उन दोनों ने इसकी परवा की। यह ज़िक्र चलने पर वो हंसकर कहते थे मियां औलाद इसीलिए तो होती है कि उसकी वजह से मां-बाप की याद बनी रहे, मेहदी के गीत औलाद का काम अंजाम देंगे। हर दिलचस्प इंसान की तरह वो अपने बारे में बात करने से बचते थे। शायद यही वजह है कि उनके जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी जुटाना बहुत आसान नहीं।
अपने 20 साल के फ़िल्मी जीवन में उन्होंने कितने संगीतकारों के साथ काम किया, इसका हिसाब रखना कठिन है। इनमें सभी तरह के लोग थे: लगभग अज्ञात से लेकर नामचीन और सुप्रतिष्ठित तक। एक छोटी सी सूची यहाँ प्रस्तुत है जो मैं याद के सहारे दे रहा हूं, लेकिन यह मुमकिन ही नहीं बल्कि लाज़िमी है कि इसमें कई महत्वपूर्ण नाम छूट गए होंगे -- मोहम्मद शफ़ी, ए आर कुरैशी, सरदार मालिक, चित्रगुप्त, बुलो सी रानी, श्याम सुंदर, एस डी बर्मन, ओ पी नैयर, सी रामचन्द्र, बिपिन बाबुल, उषा खन्ना, वसंत देसाई, एस मोहिंदर, हफ़ीज़ खां, मदन मोहन। ग़ौर कीजिए कि संगीतनिर्देशक और गीतकार अक्सर जोड़ियों में काम करते आए हैं। नौशाद और मजरूह, नौशाद और शकील बदायूनी, नरेंद्र शर्मा और सुधीर फड़के, शंकर-जयकिशन और शैलेंद्र-हसरत और साहिर-एन दत्ता की जोड़ियों के बारे में आपने ज़रूर सुना होगा। अब एक और जोड़ी के बारे में सुन लीजिए:राजा और संगीतकार मदनमोहन की जोड़ी के बारे में जो 1951 में बनी और राजा की मौत के साथ 1966 में टूटी। 15 साल के इस सफ़र में इस जोड़ी ने ऐसे रसीले और सजीले गीत दिए जो फिल्मी गीतों के इतिहास में अमर हो गए हैं।
क्रमशः

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