रविवार, 21 मार्च 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि :11-अली सरदार जाफरी

 अली सरदार जाफरी 



एक 

'तराना ए उर्दू  

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू

हमारे नग़्मों की जान उर्दू

हसीन दिलकश जवान उर्दू

यह वह ज़बाँ है कि जिसको गंगा के जल से पाकीज़गी मिली है

अवध की ठण्डी हवा के झोंकों में जिसके दिल की कली खिली है

जो शे’रो-नग़मा के खुल्दज़ारों मे आज कोयल-सी कूकती है

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू

हमारे नग़्मों की जान उर्दू

हसीन दिलकश जवान उर्दू

इसी ज़बाँ में हमारे बचपन ने माँओं से लोरियाँ सुनी हैं

जवान होकर इसी ज़बाँ में कहानियाँ इश्क़ ने कही हैं

इसी ज़बाँ के चमकते हीरों से इल्म की झोलियाँ भरी हैं

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू

हमारे नग़्मों की जान उर्दू

हसीन दिलकश जवान उर्दू

यह वह ज़बाँ है कि जिसने ज़िन्दाँ की तीरगी में दिये जलाये

यह वह ज़बाँ है कि जिसके शो’लों से जल गये फाँसियों के साये

फ़राज़े-दारो-रसन से भी हमने सरफ़रोशी के गीत गाये

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू

हमारे नग़्मों की जान उर्दू

हसीन दिलकश जवान उर्दू

चले हैं गंगो-जमन की वादी से हम हवाए-बहार बनकर

हिमालया से उतर रहे हैं तरान-ए-आबशार

बनकर रवाँ हैं हिन्दोस्ताँ की रग-रग में ख़ून की सुर्ख़ घार बनकर

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू

हमारे नग़्मों की जान उर्दू

हसीन दिलकश जवान उर्दू |


           दो 

वो बिजली-सी चमकी, वो टूटा सितारा,

वो शोला-सा लपका, वो तड़पा शरारा,

जुनूने-बग़ावत ने दिल को उभारा,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


गरजती हैं तोपें, गरजने दो इनको

दुहुल बज रहे हैं, तो बजने दो इनको,

जो हथियार सजते हैं, सजने दो इनको

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


कुदालों के फल, दोस्तों, तेज़ कर लो,

मुहब्बत के साग़र को लबरेज़ कर लो,

ज़रा और हिम्मत को महमेज़ कर लो,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


विज़ारत की मंज़िल हमारी नहीं है,

ये आंधी है, बादे-बहारी नहीं है,

जिरह हमने तन से उतारी नहीं है,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


हुकूमत के पिंदार को तोड़ना है,

असीरो-गिरफ़्तार को छोड़ना है,

जमाने की रफ्तार को मोड़ना है,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


चट्टानों में राहें बनानी पड़ंेगी,

अभी कितनी कड़ियां उठानी पड़ेंगी,

हज़ारों कमानें झुकानी पड़ेंगी,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


हदें हो चुकीं ख़त्म बीमो-रजा की,

मुसाफ़त से अब अज़्मे-सब्रआज़मां की,

ज़माने के माथे पे है ताबनाकी,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


उफ़क़ के किनारे हुए हैं गुलाबी,

सहर की निगाहों में हैं बर्क़ताबी,

क़दम चूमने आई है कामयाबी,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


मसाइब की दुनिया को पामाल करके,

जवानी के शोलों में तप के, निखर के,

ज़रा नज़्मे-गीती से ऊंचे उभर के,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!


महकते हुए मर्ग़ज़ारों से आगे,

लचकते हुए आबशारों से आगे,

बहिश्ते-बरीं की बहारों से आगे,

बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

     

तीन 

मां है रेशम के कारखाने में

बाप मसरूफ सूती मिल में है

कोख से मां की जब से निकला है

बच्चा खोली के काले दिल में है


जब यहाँ से निकल के जाएगा

कारखानों के काम आयेगा

अपने मजबूर पेट की खातिर

भूक सरमाये की बढ़ाएगा


हाथ सोने के फूल उगलेंगे

जिस्म चांदी का धन लुटाएगा

खिड़कियाँ होंगी बैंक की रौशन

खून इसका दिए जलायेगा


यह जो नन्हा है भोला भाला है

खूनीं सरमाये का निवाला है

पूछती है यह इसकी खामोशी

कोई मुझको बचाने वाला है!


       चार 

फिर एक दिन ऐसा आयेगा

आँखों के दिये बुझ जायेंगे

हाथों के कँवल कुम्हलायेंगे

और बर्ग-ए-ज़बाँ से नुक्तो-सदा

की हर तितली उड़ जायेगी


इक काले समन्दर की तह में

कलियों की तरह से खिलती हुई

फूलों की तरह से हँसती हुई

सारी शक्लें खो जायेंगी

खूँ की गर्दिश, दिल की धड़कन

सब रागनियाँ सो जायेंगी


और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर

हँसती हुई हीरे की ये कनी

ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं

इस की सुबहें इस की शामें

बेजाने हुए बेसमझे हुए

इक मुश्त ग़ुबार-ए-इन्साँ पर

शबनम की तरह रो जायेंगी


हर चीज़ भुला दी जायेगी

यादों के हसीं बुतख़ाने से

हर चीज़ उठा दी जायेगी

फिर कोई नहीं ये पूछेगा

'सरदार' कहाँ है महफ़िल में


लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा

बच्चों के दहन से बोलूँगा

चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा


जब बीज हँसेंगे धरती में

और कोंपलें अपनी उँगली से

मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी

मैं पत्ती-पत्ती कली-कली

अपनी आँखें फिर खोलूँगा

सरसब्ज़ हथेली पर लेकर

शबनम के क़तरे तोलूँगा


मैं रंग-ए-हिना, आहंग-ए-ग़ज़ल,

अन्दाज़-ए-सुख़न बन जाऊँगा

रुख़सार-ए-उरूस-ए-नौ की तरह

हर आँचल से छन जाऊँगा


जाड़ों की हवायें दामन में

जब फ़स्ल-ए-ख़ज़ाँ को लायेंगी

रहरू के जवाँ क़दमों के तले

सूखे हुए पत्तों से मेरे

हँसने की सदायें आयेंगी


धरती की सुनहरी सब नदियाँ

आकाश की नीली सब झीलें

हस्ती से मेरी भर जायेंगी


और सारा ज़माना देखेगा

हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है

हर आशिक़ है सरदार यहाँ

हर माशूक़ा सुल्ताना है


मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ

अय्याम के अफ़्सूँखाने में

मैं एक तड़पता क़तरा हूँ

मसरूफ़-ए-सफ़र जो रहता है

माज़ी की सुराही के दिल से

मुस्तक़्बिल के पैमाने में


मैं सोता हूँ और जागता हूँ

और जाग के फिर सो जाता हूँ

सदियों का पुराना खेल हूँ मैं

मैं मर के अमर हो जाता हूँ |

                 पांच 

मेरी आशिक़ हैं किसानों की हसीं कन्याएँ

जिनके आँचल ने मुहब्बत से उठाया मुझको

खेत को साफ़ किया, नर्म किया मिट्टी को

और फिर कोख़ में धरती की सुलाया मुझको

ख़ाक-दर-ख़ाक हर-इक तह में टटोला लेकिन

मौत के ढूँढ़ते हाथों ने न पाया मुझको

ख़ाक से लेके उठा मुझको मिरा ज़ौके़-नुमू[1]

सब्ज़ कोंपल ने हथेली में छुपाया मुझको

मौत से दूर मगर मौत की इक नींद के बाद

जुम्बिशे-बादे-बहारी ने जगाया मुझको

बालियाँ फूलीं तो खेतों पे जवानी आयी

उन परीज़ादों ने बालों में सजाया मुझको

मेरे सीने में भरा सुर्ख़ किरन ने सोना

अपने झूले में हवाओं ने झुलाय मुझको

मैं रकाबी में, प्यालों में महक सकता हूँ

चाहिए बस लबो-रुख़सार[2] का साया मुझको


मेरी आ़शिक़ हैं किसानों की हसीं कन्याएँ

गोद से उनकी कोई छीन के लाया मुझको

हवसे-ज़र ने मुझे आग में फूँका है कभी

कभी बाज़ार में नीलाम चढ़ाया मुझको

कैद रखा कभी लोहे में कभी पत्थर में

कभी गोदामों की क़ब्रों में दबाया मुझको

सी के बोरों में मुझे फेंका है तहख़ानों में

चोर बाज़ार कभी रास न आया मुझको

वो तरसते हैं मुझे और मैं तरसता हूँ उन्हें

जिनके हाथों की हरारत ने उगाया मुझको

क्या हुए आज मेरे नाज़ उठानेवाले

है कहाँ क़ैदे-गुलामी से छुड़ानेवाले |



0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें