फैज अहमद फैज
दरबारे वतन से जब एक दिन सब जाने वाले जाएंगे |
कुछ अपनी कजान को पहुंचेंगे कुछ अपनी जजा को जाएंगे |
ए ख़ाक नशीनों उठ बैठो वो वक्त करीब आ पहुंचा है
जब तख़्त गिराएं जाएंगे जब ताज उछाले जाएंगे |
कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाजू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चले भी चलो की अब डेरे मंजिल पे ही डाले जाएंगे |
ए जल के मारो लैब खोलो चुप रहने वालों चुप कब तक ?
कुछ हश्र तो इनसे उठेगा कुछ दूर तो नाले जाएंगे |
अब टूट गिरेंगी जजीरें ,अब जिंदानों की खैर नहीं
जो दरिया झूम के उठे हैं तिनकों से नाले ताले जाएंगे |
दो
हम मेहनतकश जगवालों से,जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक खेत नहीं इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे |
यहां पर्वत पर्वत हीरे हैं ,यान सागर सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है ,हम सारा खजाना मांगेंगे |
जो खून बहा जो बाग़ उजड़े जो गीत दिलों में क़त्ल हुए
हर कतरे का हर गुन्चेन का हर गीत का बदला मागेंगे |
ये सेठ व्यापारी रजवाड़े,दस लाख तो हम दस लाख करोड़
ये कितने दिन अमरीका से,लड़ने का सहारा मांगेंगे |
जब सीधी हो जायेगी, जब सब झगड़े मिट जाएंगे
हर देश के हरेक झंडे पर हम लाल सितारा मागेंगे |
तीन
सभी कुछ है तेरा दिया हुआ, सभी राहतें सभी कुलफतें
कभी सोहबतें, कभी फुरक़तें, कभी दूरियां, कभी क़ुर्बतें
ये सुखन जो हम ने रक़म किये, ये हैं सब वरक़ तेरी याद के
कोई लम्हा सुबहे-विसाल का, कोई शामे-हिज़्र कि मुद्दतें
जो तुम्हारी मान ले नासेहा, तो रहेगा दामने-दिल में क्या
न किसी अदू की अदावतें, न किसी सनम कि मुरव्वतें
चलो आओ तुम को दिखायें हम, जो बचा है मक़तले-शहर में
ये मज़ार अहले-सफा के हैं, ये अहले-सिदक़ की तुर्बतें
मेरी जान आज क ग़म न कर, के न जाने कातिबे-वक़्त ने
किसी अपने कल मे भी भूलकर, कहीं लिख रही हो मस्सरतें|
चार
कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं | सद शुक्र केः अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं |
मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ, दिल बेच आयें जाँ दे आयें दिल वालो कूचः-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं |
जिस धज से कोई मक़तल में गया वो शान सलामत रहती है ये जान तो आनी जानी है, इस जाँ की तो कोई बात नहीं |
मैदाने-वफ़ा दरबार नहीं, याँ नामो-नसब की पूछ कहाँ आशिक़ तो किसी का नाम नहीं, कुछ इ'श्क़ किसी की ज़ात नहीं|
गर बाज़ी इ'श्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं |
पांच
हम क्या करते किस रह चलते
हर राह में कांटे बिखरे थे
उन रिश्तों के जो छूट गए
उन सदियों के यारानो के
जो इक –इक करके टूट गए
जिस राह चले जिस सिम्त[1] गए
यूँ पाँव लहूलुहान हुए
सब देखने वाले कहते थे
ये कैसी रीत रचाई है
ये मेहँदी क्यूँ लगवाई है
वो: कहते थे, क्यूँ कहत-ए-वफा[2]
का नाहक़[3] चर्चा करते हो
पाँवों से लहू को धो डालो
ये रातें जब अट जाएँगी
सौ रास्ते इन से फूटेंगे
तुम दिल को संभालो जिसमें अभी
सौ तरह के नश्तर टूटेंगे ।

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