शनिवार, 27 मार्च 2021

जनवादी गीत संग्रह-' लाल स्याही के गीत' -16-हबीब जालिब के गीत

 


हबीब जालिब  

एक - 'दस्तूर'


दीप जिसका महल्लात ही में जले

चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले

वो जो साए में हर हर मसलहत के पले

 

ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता |

 

मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से

मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से

क्यूँ डराते हो जिन्दाँ की दीवार से

 

ज़ुल्म की बात को,जेहल की रात को

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता |

 

फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो

जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो

चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो

 

इस खुले झूठ को जेहन की लूट को

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता |

 

तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ

चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ


तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर

 मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता |

 दो -'हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है'


हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है|

लेकिन इन दोनों मुल्कों में अमरीका का डेरा है ||


ऐड की गंदम खाकर हमने कितने धोके खाए हैं

पूछ न हमने अमरीका के कितने नाज़ उठाए हैं 

फिर भी अब तक वादी-ए-गुल को संगीनों ने घेरा है|

हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है||


खान बहादुर छोड़ना होगा अब तो साथ अँग्रेज़ों का

ता बह गरेबाँ आ पहुँचा है फिर से हाथ अंग्रेज़ों का

मैकमिलन तेरा न हुआ तो कैनेडी कब तेरा है |

हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है|


ये धरती है असल में प्यारे, मज़दूरों-दहक़ानों की

इस धरती पर चल न सकेगी मरज़ी चंद घरानों की

ज़ुल्म की रात रहेगी कब तक अब नज़दीक सवेरा है |

हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है ||


तीन 'रोए भगत कबीर'


पूछ न क्या लाहौर में देखा हम ने मियाँ-'नज़ीर'

पहनें सूट अँग्रेज़ी बोलें और कहलाएँ 'मीर'

चौधरियों की मुट्ठी में है शाइ'र की तक़दीर

रोए भगत कबीर |


इक-दूजे को जाहिल समझें नट-खट बुद्धीवान

मेट्रो में जो चाय पिलाए बस वो बाप समान

सब से अच्छा शाइ'र वो है जिस का यार मुदीर

रोए भगत कबीर |


सड़कों पर भूके फिरते हैं शाइ'र मूसीक़ार

एक्ट्रसों के बाप लिए फिरते हैं मोटर-कार

फ़िल्म-नगर तक आ पहुँचे हैं सय्यद पीर फ़क़ीर

रोए भगत कबीर |


लाल-दीन की कोठी देखी रँग भी जिस का लाल

शहर में रह कर ख़ूब उड़ाए दहक़ानों का माल

और कहे अज्दाद ने बख़्शी मुझ को ये जागीर

रोए भगत कबीर |


जिस को देखो लीडर है और से मिलो वकील

किसी तरह भरता ही नहीं है पेट है उन का झील

मजबूरन सुनना पड़ती है उन सब की तक़दीर

रोए भगत कबीर |


महफ़िल से जो उठ कर जाए कहलाए वो बोर

अपनी मस्जिद की तारीफ़ें बाक़ी जूते-चोर

अपना झंग भला है प्यारे जहाँ हमारी हीर

रोए भगत कबीर |

    चार -'मौलाना'

 

बहुत मैंने सुनी है आपकी तक़रीर मौलाना |

मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना |


खुदारा सब्र की तलकीन अपने पास ही रखें

ये लगती है मेरे सीने पे बन कर तीर मौलाना |


नहीं मैं बोल सकता झूठ इस दर्ज़ा ढिठाई से

यही है ज़ुर्म मेरा और यही तक़सीर मौलाना |


हक़ीक़त क्या है ये तो आप जानें और खुदा जाने

सुना है जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना |


ज़मीनें हो वडेरों की, मशीनें हों लुटेरों की 

ख़ुदा ने लिख के दी है आपको तहरीर मौलाना |


करोड़ों क्यों नहीं मिलकर फ़िलिस्तीं के लिए लड़ते

दुआ ही से फ़क़त कटती नहीं ज़ंजीर मौलाना |


        पांच -ज़ुल्मत को जिया क्या लिखना ?'


ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बन्दे को ख़ुदा क्या लिखना?

पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना ?


इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में

इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में

ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना ?

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बन्दे को ख़ुदा क्या लिखना ?


ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम

मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम

हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना ?

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बन्दे को ख़ुदा क्या लिखना ?


लोगों पे ही हम ने जाँ वारी की हम ने ही उन्ही की ग़म-ख़्वारी

होते हैं तो हों ये हाथ क़लम शाएर न बनेंगे दरबारी

इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना ?

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बन्दे को ख़ुदा क्या लिखना?


हक़ बात पे कोड़े और ज़िन्दाँ बातिल के शिकँजे में है ये जाँ

इंसाँ हैं कि सहमे बैठे हैं खूँ-ख़्वार दरिन्दे हैं रक़्साँ

इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना?

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बन्दे को ख़ुदा क्या लिखना ?


हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ

जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ

सहरा को चमन बन कर गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना ?

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बन्दे को ख़ुदा क्या लिखना ?


ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो

ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो

विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना ?

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बन्दे को ख़ुदा क्या लिखना ?


 

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