रविवार, 28 मार्च 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि -18- नजीर अकबराबादी

 

 एक - 'देख बहारें होली की' 


जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।

और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।

ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।

महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।


हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे

कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे

दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे

कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे

कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की


गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।

कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।

मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।

उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।

सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।


और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,

हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,

कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,

कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,

कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।


ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो

उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो

माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो

लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो

जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।


   दो -'रोटियां '

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां।

फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियां॥

आंखें परीरुखों से लड़ाती हैं रोटियां।

सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियां॥

जितने मजे़ हैं सब यह दिखाती हैं रोटियां॥1॥


रोटी से जिनका नाम तलक पेट है भरा।

करता फिरे है क्या वह उछल कूद जा बजा॥

दीवार फ़ांद कर कोई कोठा उछल गया।

ठट्टा हंसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा॥

सौ सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियां॥2॥


जिस जा पे हांडी, चूल्हा तवा और तनूर है।

ख़ालिक की कुदरतों का उसी जा ज़हूर है॥

चूल्हे के आगे आंच जो जलती हुजूर है।

जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है॥

इस नूर के सबब नजर आती हैं रोटियां॥3॥


आवे तवे तनूर का जिस जा जुबां पे नाम।

या चक्की चूल्हे के जहां गुलज़ार हो तमाम॥

वां सर झुका के कीजे दण्डवत और सलाम।

इस वास्ते कि ख़ास वह रोटी के हैं मुकाम॥

पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियां॥4॥


इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर पूर।

आटा नहीं है छलनी से छन-छन गिरे है नूर॥

पेड़ा हर एक उसका है बर्फ़ी या मोती चूर।

हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर॥

इस आग को मगर यह बुझाती हैं रोटियां॥5॥


पूछा किसी ने यह किसी क़ामिल[1] फक़ीर से।

यह मेहरो[2] माह[3] हक़ ने बनाए हैं काहे के॥

वह सुनके बोला, बाबा खु़दा तुझको खै़र दे।

हम तो न चांद समझें, न सूरज हैं जानते॥

बाबा हमें तो यह नज़र आती हैं रोटियां॥6॥

  तीन - बंजरानामा 

टुक हिर्सो-हवस को छोड़ मियां, मत देस विदेश फिरे मारा।

क़ज़्ज़ाक़ अजल का लूटे है, दिन रात बजाकर नक़्क़ारा।

क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतर क्या गोने पल्ला सर भारा।

क्या गेहूं, चावल, मोंठ, मटर, क्या आग, धुंआ और अंगारा।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥1॥


गर तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है।

ऐ ग़ाफ़िल, तुझ से भी चढ़ता एक और बड़ा व्यापारी है।

क्या शक्कर, मिश्री, क़ंद, गरी, क्या सांभर मीठा खारी है।

क्या दाख, मुनक़्क़ा सोंठ, मिरच, क्या केसर, लौंग, सुपारी है।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥2॥


तू बधिया लादे बैल भरे, जो पूरब पश्चिम जावेगा।

या सूद बढ़ाकर लावेगा, या टोटा घाटा पावेगा।

क़ज़्ज़ाक अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा।

धन, दौलत, नाती पोता क्या, एक कुनबा काम न आवेगा।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥3॥


हर मंजिल में अब साथ तेरे यह जितना डेरा डंडा है।

ज़र दाम दिरम का भांडा है, बन्दूक सिपर और खाँड़ा है।

जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों मुल्कों हांडा है।

फिर हांडा है न भांडा है, न हलवा है न मांडा है।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥4॥


जब चलते-चलते रस्ते में यह गौन तेरी ढल जावेगी।

एक बधिया तेरी मिट्टी पर, फिर घास न चरने आवेगी।

यह खेप जो तूने लादी है, सब हिस्सों में बंट जावेगी।

धी, पूत, जमाई, बेटा क्या, बंजारिन पास न आवेगी।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥5॥


यह खेप भरे जो जाता है, यह खेप मियां मत गिन अपनी।

अब कोई घड़ी, पल साअत में, यह खेप बदन की है कफ़नी।

क्या थाल कटोरे चांदी के, क्या पीतल की डिबिया ढकनी।

क्या बरतन सोने चांदी के, क्या मिट्टी की हंडिया चपनी।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥6॥


यह धूम-धड़क्का साथ लिए क्यों फिरता है जंगल-जंगल?

इक तिनका साथ न जावेगा, मौकू़फ़ हुआ जब अन और ज़ल।

घर बार अटारी, चौपारी, क्या ख़ासा, तनसुख और मलमल।

क्या चिलमन, पर्दे, फ़र्श नये, क्या लाल पलंग और रंग-महल।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥7॥

  चार -'दुनिया में नेकी और बदी'


है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है

जो महँगों को तो महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है |

याँ हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है

गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है |

कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल पर्स्ती है

इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है |


जो और किसी का मान रखे, तो उसको भी अरमान मिले

जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नान मिले |

नुक़सान करे नुक़सान मिले, एहसान करे एहसान मिले

जो जैसा जिस के साथ करे, फिर वैसा उसको आन मिले|

कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है

इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है 


जो और किसी की जाँ बख़्शे तो तो उसको भी हक़ जान रखे

जो और किसी की आन रखे तो, उसकी भी हक़ आन रखे |

जो याँ कारहने वाला है, ये दिल में अपने जान रखे

ये चरत-फिरत का नक़शा है, इस नक़शे को पहचान रखे |

कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है

इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है|


जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है

जो ग़र्क़ करे फिर उसको भी, डुबकूं-डुबकूं करनी है |

शम्शीर तीर बन्दूक़ सिना और नश्तर तीर नहरनी है

याँ जैसी जैसी करनी है, फिर वैसी वैसी भरनी है |

कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है

इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है |


जो ऊँचा ऊपर बोल करे तो उसका बोल भी बाला है

और दे पटके तो उसको भी, कोई और पटकने वाला है |

बेज़ुल्म ख़ता जिस ज़ालिम ने मज़लूम ज़िबह करडाला है

उस ज़ालिम के भी लूहू का फिर बहता नद्दी नाला है |

कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है

इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है |


जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है

और कोई ग़रीब और बेचारा नाहक़ में लुट जाता है |

वो आप भी लूटा जाता है औए लाठी-पाठी खाता है

जो जैसा जैसा करता है, वो वौसा वैसा पाता है |

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है

इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है |


है खटका उसके हाथ लगा, जो और किसी को दे खटका

और ग़ैब से झटका खाता है, जो और किसी को दे झटका |

चीरे के बीच में चीरा है, और टपके बीच जो है टपका

क्या कहिए और 'नज़ीर' आगे, है रोज़ तमाशा झटपट का |

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है

इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है|


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