रविवार, 28 मार्च 2021

जनवादी गीत संग्रह-' लाल स्याही के गीत' -17-मखदूम मोहिउद्दीन के गीत

 



                                                                     मखदूम मोहिउद्दीन  

'जंगे आज़ादी'


ये जंग है जंगे आज़ादी

आज़ादी के परचम के तले ।


हम हिन्द के रहने वालों की, महकूमों की मजबूरों की

आज़ादी के मतवालों की दहक़ानों की मज़दूरों की


ये जंग है जंगे आज़ादी

आज़ादी के परचम के तले ।


सारा संसार हमारा है, पूरब पच्छिम उत्तर दक्कन

हम अफ़रंगी हम अमरीकी हम चीनी जांबाज़ाने वतन

हम सुर्ख़ सिपाही जुल्म शिकन, आहनपैकर फ़ौलादबदन।


ये जंग है जंगे आज़ादी

आज़ादी के परचम के तले ।


वो जंग ही क्या वो अमन ही क्या दुश्मन जिसमें ताराज न हो

वो दुनिया दुनिया क्या होगी जिस दुनिया में स्वराज न हो

वो आज़ादी आज़ादी क्या मज़दूर का जिसमें राज न हो ।


ये जंग है जंगे आज़ादी

आज़ादी के परचम के तले ।


लो सुर्ख़ सवेरा आता है, आज़ादी का आज़ादी का

गुलनार तराना गाता है, आज़ादी का आज़ादी का

देखो परचम लहराता है, आज़ादी का आज़ादी का ।

ये जंग है जंगे आज़ादी

आज़ादी के परचम के तले ।

 दो - आपका साथ फूलों का 

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

रात है या बारात फूलों की ।


फूल के हार, फूल के गजरे

शाम फूलों की रात फूलों की ।


आपका साथ, साथ फूलों का

आपकी बात, बात फूलों की ।


नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं

मिल रही है हयात फूलों की ।


कौन देता है जान फूलों पर

कौन करता है बात फूलों की ।


वो शराफ़त तो दिल के साथ गई

लुट गई कायनात फूलों की ।


अब किसे है दमाग़े तोहमते इश्क़

कौन सुनता है बात फूलों की ।


मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार

तेरी आँखों में रात फूलों की ।


फूल खिलते रहेंगे दुनिया में

रोज़ निकलेगी बात फूलों की ।


ये महकती हुई ग़ज़ल 'मख़दूम'

जैसे सहरा में रात फूलों की ।

    तीन - रात भर 


आप की याद आती रही रात भर

चश्मे नम मुस्कुराती रही रात भर ।


रात भर दर्द की शम्मा जलती रही

ग़म की लौ थरथराती रही रात भर ।


बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा

याद बन बन के आती रही रात भर ।


याद के चाँद दिल में उतरते रहे

चाँदनी जगमगाती रही रात भर ।

            

कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा

कोई आवाज़ आती रही रात भर ।

       

                 चार -सिपाही 

जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहाँ जा रहा है


कौन दुखिया है जो गा रही है

भूखे बच्‍चों को बहला रही है

लाश जलने की बू आ रही है

ज़िंदगी है कि चिल्‍ला रही है


कितने सहमे हुए हैं नज़ारे

कैसे डर डर के चलते हैं तारे

क्‍या जवानी का खून हो रहा है

सुर्ख हैं आंचलों के किनारे


गिर रहा है सियाही का डेरा

हो रहा है मेरी जाँ सवेरा

ओ वतन छोड़कर जाने वाले

खुल गया इंक़लाबी फरेरा|


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