गुरुवार, 11 मार्च 2021

2---श्रीराम सिंह 'शलभ' [जनवादी गीत संग्रह - 'लाल स्याही के गीत' ]

श्रीराम सिंह 'शलभ'
 
नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब |

जहाँ आवाम के ख़िलाफ़ साज़िशें हो शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से |
जहाँ पे लब्ज़े-अमन एक ख़ौफ़नाक राज़ हो
जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज़ हो |
वहाँ न चुप रहेंगे हम
कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए |1|

यक़ीन आँख मूँद कर किया था जिनको जानकर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर |
उन्ही की सरहदों में क़ैद हैं हमारी बोलियाँ
वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ |
जो इनका भेद खोल दे
हर एक बात बोल दे 
हमारे हाथ में वही खुली क़िताब चाहिए |2|

वतन के नाम पर ख़ुशी से जो हुए हैं बेवतन
उन्ही की आह बेअसर उन्ही की लाश बेकफ़न|
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करें तो क्या करें भला जो जी सके न मर सके|
स्याह ज़िन्दगी के नाम
जिनकी हर सुबह और शाम
उनके आसमान को सुर्ख़ आफ़ताब चाहिए |3|

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल सोच और सोचकर सवाल कर |
किधर गए वो वायदे सुखों के ख़्वाब क्या हुए
तुझे था जिनका इन्तज़ार वो जवाब क्या हुए|
तू इनकी झूठी बात पर
ना और ऐतबार कर|
के तुझको साँस-साँस का सही हिसाब चाहिए| 4|

होशियार कह रहा लहू के रंग का निशान 
इ किसान होशियार होशयार नौजवान |
होशियार दुश्मनों की दाल अब गले नहीं 
सफेदपोश रहजनों की चाल अब चले नहीं |
जो इनका सर मरोड़ दे 
गरूर इनका तोड़ दे 
वह सरफरोश आरजू वही शबाब चाहिए |5|

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कदम ये इंकलाब के,ये इंकलाब के कदम|
ये इंकलाब के कदम,कदम ये इंकलाब के ||

ये किसने कह दिया भला सितम के दिन बदल गए 
रकाबो जीन है वही सवार तो बदल गए |
सुना जो आँधियों के देश में चराग जल गए 
वतन फरोश भी वतन के रहनुमां में ढल गए|
 
जिसे न पढ़ सके हो तुम न खुद पे मध् सको हो तुम 
बदल के जीनल्ड आ गए सेफ उसी किताब के ||

सितमगारों से तुम कभी लाडे थे ये गुनाह था 
खड़े थे उनके रूबरू खड़े थे ये गुनाह था |
जबान रोटियों से जुड़ गयी थी ये गुनाह था 
सही दिशा में राह मुद गयी थी ये गुनाह था |

गुनाह था की यूँ ही क्यों खिलाफ तुम उठे ही क्यों 
जम्हूरियत के साहिबा के तालिबे खिताब के ||

पकड़ के नजब वक्त की खड़ा है जिसको होश है 
समझ रहा है खूब यह जवान दिलों में जोश है |
कोई वजह तो है की फिजां अभी खामोश है 
या जश्न यह ख़ुशी का ही सामान सितम बदोश है|

जो सच है कह चुके हैं हम,सहेंगे सह चुके हम 
ये हम नहीं हैं वरद्ना तकाजे हैं शबाब के ||

                    3
मजूर आ ! किसान आ !
वतन के नवजवान आ !
तुझे सितम की सरहदों के पार अब निकलना है !
य' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

यहाँ पे मुद्दतों से आदमी ने है अश्क पिया
रहम करेंगे लोग इस उम्मीद पर बहुत जिया
मगर सवाल पेट का बिना जवाब के रहा
किसी ने कुछ नहीं सुना, किसी ने कुछ नहीं कहा
तो उसने सर उठा लिया
नया बिगुल बजा दिया
उसी बिगुल की धुन में तेरे सुर को आज ढलना है !
य' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

ये आदमी की शक़्ल में भटकते लोग कौन हैं ?
क़दम-क़दम से खौफ़ से अटकते लोग कौन हैं ?
न जिनके बाग़ में उम्मीद की कोई कली खिली !
अन्धेरा पी के मर गए मगर न रोशनी मिली !
उन्हीं का ख़्वाब तू भी है
पसीना और लहू भी है
उन्हीं की यादगार का चिराग़ बन के जलना है !
य' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

ये जिनकी सांस-सांस में तड़प रही हैं बिजलियाँ
उन्हीं को मिल रही हैं रोज़ लाख-लाख धमकियाँ
य' डर है उनके लब पे भूख का सवाल आए ना
कि उनकी धमनियों में ख़ून का उबाल आए ना
कहीं ज़बाँ न खोल दें
ये सच कहीं न बोल दें
हुकुमतों की ख़ैर-ख़्वाहियत को यों ही पलना है !
य' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

सुबह की रोशनी से जिसने इनको काट रक्खा है
दिलों की वादियों को साजिशों से बाँट रक्खा है
सड़क पे खींच ला कि अब उसे सबक सिखा दे तू
वतन परस्त ! इंकलाब करके अब दिखा दे तू
य' सच है इस 'जनून' से
शहीद ! तेरे ख़ून से
समन्दरे-निज़ाम को उबलना है ! उबलना है !
य' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

ज़मीं के पूत से ज़मीन छिन ली गई यहाँ
जला उसी का घर, पड़ी उसी के पाँव बेड़ियाँ
हुक़ूक मिल सके नहीं कभी अमन के रास्ते
कभी नहीं रही ज़मीन कायरों के वास्ते
'लहू-लहू' के राग में
जवाँ दिलों की आग में
हर इक चटाने-ज़ुल्म को पिघलना है ! पिघलना है !
य' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

बहे अगर ख़िलाफ़ तो हवा का रुख़ बदल दे तू
जो साँप फन उठाते हैं तो उनका फन कुचल दे तू
जो हाथ तेरे हाथ से जुदा हैं उनको काट दे
ज़रूरतन ज़मीं को सरों से दोस्त पाट दे
तुझी को यह भी करना है !
कि ख़ुद ब ख़ुद उबरना है !
बहुत गिरा है तू कि अब सम्हलना है ! सम्हलना है !
य' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !





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