बुधवार, 10 मार्च 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 4--बहादुरशाह 'जफ़र'


     


                                                                    बहादुरशाह 'जफ़र' 

       एक 

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में, 

किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में। 


बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला, 

किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में। 


कह दो इन हसरतों से, कहीं और जा बसें, 

इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में। 


एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान, 

कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में। 


उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन, 

दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में। 


दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई, 

फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में। 


कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए, 

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।

                   दो 

न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ


न तो मैं किसी का हबीब हूँ, न तो मैं किसी का रक़ीब हूँ

जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ

न किसी की...


मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया

जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया, मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

न किसी की...


पए-फ़ातेहा कोई आये क्यूँ, कोई चार फूल चढ़ाये क्यूँ

कोई आ के शम्मा जलाये क्यूँ, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

न किसी की...

                     तीन 

मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो

ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो.


ग़नीमत तुम इसे समझो के इस ख़ुम-ख़ाने में यारो

नसीब इक-दम दिल-ए-ख़ुर्रम हमें भी हो तुम्हें भी हो.


दिलाओ हज़रत-ए-दिल तुम न याद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ उस का

कहीं ऐसा न हो ये सम हमें भी हो तुम्हें भी हो.


हमेशा चाहता है दिल के मिल कर कीजे मै-नोशी

मयस्सर जाम-ए-मय-ए-जम-जम हमें भी हो तुम्हें भी हो.


हम अपना इश्क़ चमकाएँ तुम अपना हुस्न चमकाओ

के हैराँ देख कर आलम हमें भी हो तुम्हें भी हो.


रहे हिर्स ओ हवा दाइम अज़ीज़ो साथ जब अपने

न क्यूँकर फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम हमें भी हो तुम्हें भी हो.


‘ज़फ़र’ से कहता है मजनूँ कहीं दर्द-ए-दिल महज़ूँ

जो ग़म से फ़ुर्सत अब इक दम हमें भी हो तुम्हें भी हो.

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