बुधवार, 31 मार्च 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि :20-हरिवंशराय बच्चन


 

हरिवंशराय बच्चन 


इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,

लहरालहरा यह शाखा‌एँ कुछ शोक भुला देती मन का,

कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,

बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,

तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,

उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,

जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,

स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,

मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!

ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा‌एँगे,

तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


प्याला है पर पी पा‌एँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,

इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,

कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,

करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?

कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,

उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,

वे भार दि‌ए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढो‌ए,

महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!

उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सो‌ए!

अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,

उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आ‌ऐंगी,

जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जा‌एँगी,

जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,

तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मना‌एगी!

जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पा‌एगा,

तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


ऐसा चिर पतझड़ आ‌एगा, कोयल न कुहुक फिर पा‌एगी,

बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगा‌एगी,

अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जा‌एँगे,

अलि‌अवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आ‌एगी,

जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जा‌एगा,

तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,

निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,

वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!

मुँह खोल खड़े रह जा‌एँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!

संगीत सजीव हु‌आ जिनमें, जब मौन वही हो जा‌एँगे,

तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,

वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लता‌ओं के गहने,

दो दिन में खींची जा‌एगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी

पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पा‌एगा कितने दिन रहने!

जब मूर्तिमती सत्ता‌ओं की शोभाशुषमा लुट जा‌एगी,

तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,

फिर भी उस पार खड़ा को‌ई हम सब को खींच बुलाता है!

मैं आज चला तुम आ‌ओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,

दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।

मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!

जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


जो बीत गई सो बात गई


जीवन में एक सितारा था

माना वह बेहद प्यारा था

वह डूब गया तो डूब गया

अम्बर के आनन को देखो

कितने इसके तारे टूटे

कितने इसके प्यारे छूटे

जो छूट गए फिर कहाँ मिले

पर बोलो टूटे तारों पर

कब अम्बर शोक मनाता है

जो बीत गई सो बात गई


जीवन में वह था एक कुसुम

थे उसपर नित्य निछावर तुम

वह सूख गया तो सूख गया

मधुवन की छाती को देखो

सूखी कितनी इसकी कलियाँ

मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ

जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली

पर बोलो सूखे फूलों पर

कब मधुवन शोर मचाता है

जो बीत गई सो बात गई


जीवन में मधु का प्याला था

तुमने तन मन दे डाला था

वह टूट गया तो टूट गया

मदिरालय का आँगन देखो

कितने प्याले हिल जाते हैं

गिर मिट्टी में मिल जाते हैं

जो गिरते हैं कब उठतें हैं

पर बोलो टूटे प्यालों पर

कब मदिरालय पछताता है

जो बीत गई सो बात गई


मृदु मिटटी के हैं बने हुए

मधु घट फूटा ही करते हैं

लघु जीवन लेकर आए हैं

प्याले टूटा ही करते हैं

फिर भी मदिरालय के अन्दर

मधु के घट हैं मधु प्याले हैं

जो मादकता के मारे हैं

वे मधु लूटा ही करते हैं

वह कच्चा पीने वाला है

जिसकी ममता घट प्यालों पर

जो सच्चे मधु से जला हुआ

कब रोता है चिल्लाता है

जो बीत गई सो बात गई |

       तीन - मधुशाला 


धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,

मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,

पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,

कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।


बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,

बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,

लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,

रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला। 


बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,

पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला,

दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,

विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।


हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,

वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,

स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,

पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।


एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,

एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,

दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,

दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।


किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,

किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी

किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।


दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।


पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,

सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,

मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,

मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।


सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,

सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,

शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से

चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।


बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,

गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,

शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को

अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!


मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,

एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,

दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,

बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!


कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,

बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,

एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,

देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!


और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,

इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,

कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में

घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।


आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,

आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,

होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर

जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।


अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,

क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,

तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,

हमें नरक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।


यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,

पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,

क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के

डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।


मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसी-दल,प्याला,

मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल, हाला,

मेरे शव के पीछे चलने वालों, याद इसे रखना-

राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।


मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला

आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,

दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों

और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।


और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला

कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,

प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना

पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।


नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला

काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,

जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की

धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।





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