बुधवार, 17 मार्च 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि 

8- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'



                एक- 'भिक्षुक' 

 वह आता--


दो टूक कलेजे को करता, पछताता

पथ पर आता।


पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक,

मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को

मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।


साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,

बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,

और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।

भूख से सूख ओठ जब जाते

दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?

घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,

और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !




ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा

अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम

तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।


       दो - 'तोड़ती पत्थर'


वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।


कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।


चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन,

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गई,

प्रायः हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।


देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।


एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"

तीन - स्नेह निर्झर बाह गया है 


स्नेह-निर्झर बह गया है !

रेत ज्यों तन रह गया है ।


आम की यह डाल जो सूखी दिखी,

कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी

नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी

नहीं जिसका अर्थ-

          जीवन दह गया है ।"


"दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,

किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;

पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--

ठाट जीवन का वही

          जो ढह गया है ।"


अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,

श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।

बह रही है हृदय पर केवल अमा;

मै अलक्षित हूँ; यही

          कवि कह गया है ।


          चार - 'मैं अकेला' 

मैं अकेला;

देखता हूँ, आ रही

      मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।


पके आधे बाल मेरे

हुए निष्प्रभ गाल मेरे,

चाल मेरी मन्द होती आ रही,

      हट रहा मेला ।


जानता हूँ, नदी-झरने

जो मुझे थे पार करने,

कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,

      कोई नहीं भेला|


पांच- 'किसानों की पाठशाला'

जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ, आओ।

आज अमीरों की हवेली

किसानों की होगी पाठशाला

धोबी, पासी, चमार, तेली

खोलेंगे अंधेरे का ताला,

एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ।

यहाँ जहाँ सेठ जी बैठे थे

बनिये की आँख दिखाते हुए,

उनके ऐंठाये ऐंठे थे

धोखे पर धोखा खाते हुए

बैंक किसानों का खुलवाओ।

सारी सम्पत्ति देश की हो,

सारी आपत्ति देश की बने,

जनता जातीय वेश की हो,

वाद से विवाद यह ठने,

काँटा काटें से कढाओ।



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