गीतकार वशिष्ठ अनूप एक इसलिए राह संघर्ष की हमने चुनी ज़िंदगी आँसुओं में नहाई न हो | शाम सहमी न हो, रात हो ना डरी भोर की आँख फिर डबडबाई न हो। इसलिए… सूर्य पर बादलों का न पहरा रहे रोशनी रोशनाई में डूबी न हो| यूँ न ईमान फुटपाथ पर हो खड़ा हर समय आत्मा सबकी ऊबी न हो| आसमाँ में टँगी हों न खुशहालियाँ कैद महलों में सबकी कमाई न हो। इसलिए… कोई अपनी खुशी के लिए ग़ैर की रोटियाँ छीन ले, हम नहीं चाहते| छींटकर थोड़ा चारा कोई उम्र की हर खुशी बीन ले, हम नहीं चाहते| हो किसी के लिए मखमली बिस्तरा और किसी के लिए इक चटाई न हो। इसलिए… अब तमन्नाएँ फिर ना करें खुदकुशी ख़्वाब पर ख़ौफ की चौकसी ना रहे| श्रम के पाँवों में हों ना पड़ी बेड़ियां शक्ति की पीठ अब ज़्यादती ना सहे| दम न तोड़े कहीं भूख से बचपना रोटियों के लिए फिर लड़ाई न हो। इसलिए… दो जो भूखा है छीन झपटकर खाएगा | कब तक कोई सहमेगा शरमाएगा | अपनी भाषा घी शक्कर सी होती है घैर की भाषा बोलेगा हकलाएगा | चुप रहने का निकलेगा अंजाम यही धीरे धीरे सबका लब सिल जाएगा | झूठ बोलना हरदम लाभ का सौदा है सच बोला तो जान से मारा जाएगा | जारी करता है वह फतवे पर फतवा नंगा दुनिया को तहजीब सिखाएगा | मजबूरी ही नहीं जरूरत है युग की गठियल हाथों में परचम लहराएगा| तीन तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं, कविता में हम कबीर के ऐलान के वारिस हैं। हम सीकरी के आगे माथा नहीं झुकाते, कुम्भन की फ़कीरी के, अभिमान के वारिस हैं। सीने में दिल हमारे आज़ाद का धड़कता, हम वीर भगत सिंह के बलिदान के वारिस हैं। एकलव्य का अंगूठा कुछ पूछता है हरदम, हम तीर कमानों के संधान के वारिस हैं। चार उम्र तो है गुड़िया से खेलें, नज़र टिकी गुब्बारों पर, नंगे पाँव चले हैं बच्चे, दहक रहे अंगारों पर। सर पर भारी बोझ लिये बैदेही पैदल भटक रही, टूटी चप्पल, दूर है मंज़िल, चलना है तलवारों पर। स्वाभिमान से जो जीते थे, आज भिखारी जैसे हैं, संकट में भी क्रूर सियासत, थू ढोंगी हत्यारों पर। कई दिनों से भूखी-प्यासी माँ की छाती सूख गई, नाज़ुक बच्चा हुआ अधमरा, लानत है मक्कारों पर। खाना नहीं मिला पर लाठी अक्सर ही खा लेते हैं, साँसें टँगी हुई हैं इनकी, मंज़िल की मीनारों पर। सब कुछ खोकर सड़क किनारे भी रुकने को जगह नहीं, नेताओं की हँसती फोटो चिपकी है दीवारों पर। रिक्शा ठेला साइकिल पैदल, गिरते-पड़ते निकल पड़े, अकथ दर्द की कविता कैसे लिख दूँ इन बंजारों पर।
शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021
जनवादी गीत संग्रह : 'लाल स्याही के गीत' -20-गीतकार वशिष्ठ अनूप
गीतकार वशिष्ठ अनूप एक इसलिए राह संघर्ष की हमने चुनी ज़िंदगी आँसुओं में नहाई न हो | शाम सहमी न हो, रात हो ना डरी भोर की आँख फिर डबडबाई न हो। इसलिए… सूर्य पर बादलों का न पहरा रहे रोशनी रोशनाई में डूबी न हो| यूँ न ईमान फुटपाथ पर हो खड़ा हर समय आत्मा सबकी ऊबी न हो| आसमाँ में टँगी हों न खुशहालियाँ कैद महलों में सबकी कमाई न हो। इसलिए… कोई अपनी खुशी के लिए ग़ैर की रोटियाँ छीन ले, हम नहीं चाहते| छींटकर थोड़ा चारा कोई उम्र की हर खुशी बीन ले, हम नहीं चाहते| हो किसी के लिए मखमली बिस्तरा और किसी के लिए इक चटाई न हो। इसलिए… अब तमन्नाएँ फिर ना करें खुदकुशी ख़्वाब पर ख़ौफ की चौकसी ना रहे| श्रम के पाँवों में हों ना पड़ी बेड़ियां शक्ति की पीठ अब ज़्यादती ना सहे| दम न तोड़े कहीं भूख से बचपना रोटियों के लिए फिर लड़ाई न हो। इसलिए… दो जो भूखा है छीन झपटकर खाएगा | कब तक कोई सहमेगा शरमाएगा | अपनी भाषा घी शक्कर सी होती है घैर की भाषा बोलेगा हकलाएगा | चुप रहने का निकलेगा अंजाम यही धीरे धीरे सबका लब सिल जाएगा | झूठ बोलना हरदम लाभ का सौदा है सच बोला तो जान से मारा जाएगा | जारी करता है वह फतवे पर फतवा नंगा दुनिया को तहजीब सिखाएगा | मजबूरी ही नहीं जरूरत है युग की गठियल हाथों में परचम लहराएगा| तीन तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं, कविता में हम कबीर के ऐलान के वारिस हैं। हम सीकरी के आगे माथा नहीं झुकाते, कुम्भन की फ़कीरी के, अभिमान के वारिस हैं। सीने में दिल हमारे आज़ाद का धड़कता, हम वीर भगत सिंह के बलिदान के वारिस हैं। एकलव्य का अंगूठा कुछ पूछता है हरदम, हम तीर कमानों के संधान के वारिस हैं। चार उम्र तो है गुड़िया से खेलें, नज़र टिकी गुब्बारों पर, नंगे पाँव चले हैं बच्चे, दहक रहे अंगारों पर। सर पर भारी बोझ लिये बैदेही पैदल भटक रही, टूटी चप्पल, दूर है मंज़िल, चलना है तलवारों पर। स्वाभिमान से जो जीते थे, आज भिखारी जैसे हैं, संकट में भी क्रूर सियासत, थू ढोंगी हत्यारों पर। कई दिनों से भूखी-प्यासी माँ की छाती सूख गई, नाज़ुक बच्चा हुआ अधमरा, लानत है मक्कारों पर। खाना नहीं मिला पर लाठी अक्सर ही खा लेते हैं, साँसें टँगी हुई हैं इनकी, मंज़िल की मीनारों पर। सब कुछ खोकर सड़क किनारे भी रुकने को जगह नहीं, नेताओं की हँसती फोटो चिपकी है दीवारों पर। रिक्शा ठेला साइकिल पैदल, गिरते-पड़ते निकल पड़े, अकथ दर्द की कविता कैसे लिख दूँ इन बंजारों पर।
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