यश मालवीय
एक
अपनों से लड़ने के सारे तर्क पुराने हैं
हमें नयी आजादी के मायने समझाने की हैं।
टाटा, बिड़ला और कारगिल जबड़े कसते हैं
हम दलदल पैदा करते हैं, गहरे फंसते हैं
आखिर सोचों क्यूं अपने सपने बचकाने हैं ।
अपनी मुद्रा भूल विदेशी मुद्रा ओढ़े हैं
हम खुद ही सौ सौ कर्जों के पकते फोड़े हैं
फौड़ो और फफोलों वाले चौकी थाने हैं ।
भारत मां की देह घाव की गिनती कौन करे?
आपस में लड़ मरें देश पर कोई नहीं मरे
है आंधी सी सोच, सोच के सौ तहखाने हैं।
हम शायद स्वदेश को पल पल जीना भूल गये
भूले उन्हें कि जो फांसी पर चढ़कर झूल गये
हमें बुझ रहे अंगारे फिर से दहकाने हैं ।
हमें नयी आजादी के मायने समझाने हैं ।
दो
नाम लगी सी द्वारा की बैशाखी है
लड़की मंगलसूत्र या कि राखी है ।
घर पर पिता एक अनुशासन गहरा है
बाहर निकलो तो समाज का पहरा है
सीधी है कब आड़ी तिरक्षी बांकी है ।
कोई पत्र नहीं जो केवल उसका हो
मांगा करती है बस दो पल उसका हो
चौबिस घंटें भाई पति पिता की है।
अपना है अस्तित्व न कोई लहर कहीं
पूरे दिन में अपना कोई पहर नहीं
सपने में ही खाई लांघी ढाकी है ।
सिर माथे रखकर भी फेंकी जाती है
दिखलाई जाती है देखी जाती है
व्रत,पूजा, उपवास सजी सी झांकी है।
है मोटी तनख्वाह स्वयं पर दुबली है
कवियों की आंखों में बादल बिजली है
रात अंधेरी है, यह धूंप उषा की है ।
कदम कदम पर झाड़ू और बुहारू है
पुरूषों की खातिर उतरी सी दारू है।
अलग अलग कीमत किश्तों ने आंकी है ।
कभी लोच था देह आज अकड़ी सी है
चूल्हे में ही सुलग रही लकड़ी सी है
मूरत, चौका, बासन की प्रतिभा सी है ।
लड़की मंगलसूत्र या कि राखी है ।
तीन
लाठी पीटे, अलग न होगी, काई मेरे भाई |
कुछ भी कर लें,जी लें,मर लें देश भक्त दंगाई |
इसको उसको चाहे जिसको
कर लेते हैं अगवा |
कैसा रंगों का संयोजन
हुआ तिरंगा भगवा |
बड़े-बड़े अवतारों की है नई-नई प्रभुताई |
लोकसभा से राजसभा तक
खादी पहनें चीलें |
ठोंक रही हैं प्रजातंत्र के
माथे पर ही कीलें |
खून थूकते पर्वत झरने,घाटी और तराई |
अट्टहास करता सिंहासन
काँप रहा मतदाता |
पटक रहा सिर,पागलख़ाने
में ख़ुद बुद्धि प्रदाता |
इसके-उसके बाल बनाता,समय हुआ ख़ुद नाई |
चार
एक उदास हंसी लिए बहुत मुस्कराये
बुद्ध का मजाक उड़ा बुद्ध मुस्कराये |
बुद्ध पूर्णिमा को ही हो गया अंधेरा
संतों के शासन में बुझ गया सवेरा
उस पर यह भ्रम है सौ सूर्य जगमगाये |
समझदार लोग बिना काई के फिसले
मानवता देख रही खून भरे तसले
जख्मी इतिहास बोध पंख फ़डफ़डाये |
प्रेम का अहिंसा का पाठ लड़खड़ाया
संसद में बैठ एक शख्श बडबडाया
अंधों की आँखों में दृश्य झिलमिलाये |
करुणा बीमार हुयी मौत हुए सपने
कैसा विज्ञान लगा राम राम जपने
सच सुनकर बस्ती के लोग तिलमिलाए |
प्रगतिशील मूल्यों की परिभाषा बदली
ऐसा विस्फोट हुआ दृष्टि पड़ी धुंधली
चूक जाने पर खुद ही तर्क तिलमिलाए |
हरे घाव लिए देह संस्कृति की नीली
राह क्या दिखाएगी बुझी हुयी तीली
जिसमें थी आग वही शब्द थरथराये |
कान खोल सुनती है सभ्यता धमाके
स्याह हुए जाते हैं बस्तियां इलाके
गाफिल संघर्षों के नए गुल खिलाये |
बिन रोटी के बहुमत कर रहा जुगाली
सौ नए परीक्षण हैं पेट मगर खाली
भूखा यह देश सिर्फ राष्ट्रगीत गाये |
देशभक्ति का नुस्खा सर चढ़कर बोला
तन गया वही मुंह जो अब तक था झोला
एक नहीं कितने ही अश्व हिनहिनाये |
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