शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

जनवादी गीत संग्रह :'लाल स्याही के गीत' 22- उदयप्रताप सिंह के गीत



  उदयप्रताप सिंह 


वतन के मेहनतकश मजदूर !

देश की माटी के सिन्दूर !

उठो मैं अपने गीतों में, तुम्हें आवाज लगाता हूं ।

    

तुम्हारे तन का पारस छू सुनहरी फसल लहकती है

तुम्हारे बलबूते पर ही मिलों की कलें फड़कती हैं ।

तुम्हीं ने नभ तक जादूगर खाक से महल बनाये हैं

तुम्हारा खून पसीना ही सभ्य को सभ्य बनाये है।


तुम्हीं ने हुनर दिया मुझको तुम्हीं को राह दिखाता हूं।

उठो मैं अपने गीतों में तुम्हें आवाज लगाता हूं।।



फूल में महक तुम्हारी है, बहारें तुमसे जीवित हैं 

चमन के मालिक क्यों अधिकार तुम्हारे फिर भी सीमित हैं।

खेत में मेहनत तुमने की तुम्ही को तंगी का डर हो

तुम्हारे घर में दिया जले रौशनी और कहीं पे हो ।


दिये के नीचे ही तम है, वहीं एक दीप जलाता हूं।

उठो मैं अपने गीतों में तुम्हें आवाज लगाता हूं।।



शक्ति के स्रोत बताता जा सहेगा कब तक तू अन्याय

अर्थ के उदगम तनिक बता रहेगा कब तक तू निरूपाय।

मनुजता का मुख तुझसे दीप्त सभ्यता के तुम गहने हो

गले में वर्ग जाति की तौक मगर तुम अब तक पहने हो।


ओज से स्वर में दर्पण हो तुम्ही को तुम्हें दिखाता हूं ।

उठो मैं अपने गीतों में तुम्हें आवाज लगाता हूं ।।



तुम्हारी खुशहाली के बिना देश की खुशहाली भी पाप

खेत में फसलें रहें उदास, बाग में कलियों को सन्ताप।

निरर्थक प्रजातंत्र का शौर, निरर्थक हैं ये जोग विहाग

मूर्ति तक जाता न कोई, मन्दिरों से सबको अनुराग ।


उठो ऐ नीलकंठ तीसरे नेत्र की याद दिलाता हूं ।

उठो मैं अपने गीतों में तुम्हें आवाज लगाता हूं ।।


                    दो 

ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के |

चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के ||


वैसे भी ये बड़े लोग हैं अक्सर धूप चढ़े जगते हैं,

व्यवहारों से कहीं अधिक तस्वीरों में अच्छे लगते हैं|

इनका है इतिहास गवाही जैसे सोए वैसे जागे,

इनके स्वार्थ सचिव चलते हैं नयी सुबह के रथ के आगे|


माना कल तक तुम सोये थे लेकिन ये तो जाग रहे थे |

फिर भी कहाँ चले जाते थे जाने सब उपहार चमन के ||


इनके हित औ अहित अलग हैं इन्हें चमन से क्या मतलब है,

राम कृपा से इनके घर में जो कुछ होता है वह सब है |

संघर्षों में नहीं जूझते साथ समय के बहते भर हैं,

वैसे ये हैं नहीं चमन के सिर्फ चमन में रहते भर हैं |


इनका धर्म स्वयं अपने आडम्बर से हल्का पड़ता हैं |

शुभचिंतक बनने को आतुर बैठे हैं ग़द्दार चमन के ||



सूरज को क्या पड़ी भला जो दस्तक देकर तुम्हें पुकारे,

गर्ज़ पड़े सौ बार तुम्हारी खोलो अपने बंद किवाड़े |

नयी रोशनी गले लगाओ आदर सहित कहीं बैठाओ,

ठिठुरी उदासीनता ओढ़े सोया वातावरण जगाओ |


हो चैतन्य ऊंघती आँखें फिर कुछ बातें करो काम की |

कैसे कौन चुका सकता है कितने कब उपकार चमन के||



धरे हाथ पर हाथ न बैठो कोई नया विकल्प निकालो,

ज़ंग लगे हौंसले माँज लो बुझा हुआ पुरुषार्थ जगा लो|

उपवन के पत्ते पत्ते पर लिख दो युग की नयी ऋचाएँ,

वे ही माली कहलाएँगे जो हाथों में ज़ख्म दिखाएँ |


जिनका ख़ुशबूदार पसीना रूमालों को हुआ समर्पित |

उनको क्या अधिकार कि पाएं वे महंगे सत्कार चमन के||



जिनको आदत है सोने की उपवन की अनुकूल हवा में,

उनका अस्थि शेष भी उड़ जाता है बनकर धूल हवा में|

लेकिन जो संघर्षों का सुख सिरहाने रखकर सोते हैं,

युग के अंगड़ाई लेने पर वे ही पैग़म्बर होते हैं |


जो अपने को बीज बनाकर मिटटी में मिलना सीखे हैं |

सदियों तक उनके साँचे में ढलते हैं व्यवहार चमन के||


                           तीन 

अगर बहारें पतझड़ जैसा रूप बना उपवन में आएँ

माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


वातावरण आज उपवन का अजब घुटन से भरा हुआ है

कलियाँ हैं भयभीत फूल से, फूल शूल से डरा हुआ है

सोचो तो तुम, क्या कारण है दिल दिल के नज़दीक नहीं है

जीवन की सुविधाओं का बँटवारा शायद ठीक नहीं है


उपवन में यदि बिना खिले ही कलियाँ मुरझाने लग जाएँ

माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


यह अपनी-अपनी किस्मत है कुछ कलियाँ खिलती हैं ऊपर

और दूसरी मुरझा जातीं झुके-झुके जीवन भर भू पर

माना बदकिस्मत हैं लेकिन, क्या वे महक नहीं सकती हैं

अगर मिले अवसर अंगारे सी क्या दहक नहीं सकती हैं ?


धूप रोशनी अगर चमन में ऊपर ऊपर ही बँट जाएँ

माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


काँटे उपवन के रखवाले अब से नहीं ज़माने से हैं

लेकिन उनके मुँह पर ताले अब से नहीं ज़माने से हैं

ये मुँह बंद उपेक्षित काँटे अपनी कथा कहें तो किससे?

माली उलझे हैं फूलों से अपनी व्यथा कहें तो किससे?


इसी प्रश्न को लेकर काँटे यदि फूलों को ही चुभ जाएँ

माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


सुनते हैं पहले उपवन में हर ऋतु में बहार गाती थी

कलियों का तो कहना ही क्या, मिटटी से ख़ुशबू आती थी

यह भी ज्ञात हमें उपवन में कुछ ऐसे भौंरे आए थे

सारा चमन कर दिया मरघट, अपने साथ ज़हर लाए थे


लेकिन अगर चमन वाले ही भौंरों के रंग-ढंग अपनाएँ

माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?


बुलबुल की क्या है बुलबुल तो जो देखेगी सो गाएगी

उसकी वाणी तो दर्पण है असली सूरत दिखलाएगी

क्योंकि आज बुलबुल पर गाने को रस डूबा गीत नहीं है

सारा चमन बना है दुश्मन कोई उसका मीत नहीं है


गाते-गाते यदि बुलबुल के गीत आँसुओं से भर जाएँ

माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

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