कैफी आजमी
एक- दूसरा वनवास
राम वनवास से लौटकर जब घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्शे दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छ: दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये ।
जगमगाते थे जहां राम के कदमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आये ।
धर्म क्या उनका था क्या जात थी यह जानता कौन?
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन ?
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आये।
शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता जख़्म जो सर पर आये।
पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
के नजर आये वहां ख़ून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुये अपने ही द्वारे से उठे
राजधानी की फिजां रास ना आयी मुझे
छ: दिसम्बर को मिला दूसरा वनवास मुझे ।
दो
शौर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा ।
कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा।
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम न था
जिस्म जल जायेंगे जब सर पे न साया होगा ।
बानी ए जश्ने बहारा ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटों को लहू अपना पिलाया होगा।
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
ये सराब उनको समन्दर नजर आया होगा।
बिजली के तार पे बैठा हुआ तन्हा पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।
तीन
कर चले हम फिदा जान ओ तन साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों ।
सांस थमती गयी नब्ज जमती गयी
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया ।
कट गये सर हमारे तो कुछ गम नहीं
सर हिमालय का हमने ना झुकने दिया ।
मरते मरते रहा बांका पन साथियों।।
जिंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज आती नहीं ।
हुस्न और इश्क दोनों को रूसवा करें
वो जवानी जो खूं में नहाती नहीं ।
आज धरती बनी है दुल्हन साथियों।।
राह कुर्बानियों की ना वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नये काफिले ।
जीत का जश्न इस जश्न के बाद है
जिन्दगी मौत से मिल रही है गले ।
बांध लो अपने सर से कफ़न साथियों।।
खींच लो अपने खूं से जमीं पर लकीर
इस तरफ आने पाये ना रावण कोई ।
तोड़ दो हाथ गर हाथ बढ़ने लगे
छूने पाये ना सीता का दामन कोई ।
राम ही तुम तुम्हीं लक्ष्मण साथियों।।
चार
खार-ओ-खस तो उठें, रास्ता तो चले |
मैं अगर थक गया, काफ़ला तो चले |
चांद, सूरज, बुजुर्गों के नक्श-ए-क़दम
खैर बुझने दो उनको हवा तो चले |
हाकिम-ए-शहर, यह भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं, मैकदा तो चले |
उसको मज़हब कहो या सिआसत कहो!
खुद्कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले |
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाउँगा
आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले |
बेल्चे लाओ, खोलो ज़मीन की तहें
मैं कहाँ दफ़न हूँ, कुछ पता तो चले|
पांच
पशेमानी[1]
मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था
कि वह रोक लेगी मना लेगी मुझको ।
हवाओं में लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको ।
क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
कि आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको ।
कि उसने रोका न मुझको मनाया
न दामन ही पकड़ा न मुझको बिठाया ।
न आवाज़ ही दी न मुझको बुलाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया ।
यहाँ तक कि उससे जुदा हो गया मैं
जुदा हो गया मैं, जुदा हो गया मैं ।
छह:
सोमनाथ
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं
दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी
वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है|
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