शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि:22- नजीर बनारसी


 

नजीर बनारसी 

                 एक 

कभी ख़ामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे |

मैं उतना याद आऊँगा मुझे जितना भुलाओगे |


कोई जब पूछ बैठेगा ख़ामोशी का सबब तुमसे

बहुत समझाना चाहोगे मगर समझा ना पाओगे |


कभी दुनिया मुक्कमल बन के आएगी निगाहों में

कभी मेरे कमी दुनिया की हर इक शै में पाओगे |


कहीं पर भी रहें हम तुम मुहब्बत फिर मुहब्बत है

तुम्हें हम याद आयेंगे हमें तुम याद आओगे |


                           दो 

बादल की तरह झूम के लहरा के पियेंगे |

साक़ी तेरे मैख़ाने पे हम छा के पियेंगे |


उन मदभरी आँखों को भी शर्मा के पियेंगे

पैमाने को पैमाने से टकरा के पियेंगे  |


बादल भी है, बादा भी है, मीना भी है, तुम भी

इतराने का मौसम है अब इतराके पियेंगे |


देखेंगे कि आता है किधर से ग़म-ए-दुनिया

साक़ी तुझे हम सामने बिठला के पियेंगे|


                      तीन 

गेसू है कि भादों का घटाटोप अँधेरा  |

हँसता हुआ मुखड़ा है कि पनघट का सवेरा |


हर वर्क के लब पर किसी राधा का तबस्सुम

हर घन की गरज में किसी घनश्याम का डेरा |


ये सरमई आँचल ये दमकते हुए आरिज 

तुम शाम अवध की तुम्हीं काशी का सवेरा |


मालूम नहीं कौन सा जादू है नज़र में

जो सामने आता है वो हो जाता है तेरा |


हम कब से लिये बैठे हैं अरमानों की दौलत

मिलता ही नहीं कोई करीने का लुटेरा |


डरता हूँ कि डस न ले सपेरे को वही साँप

जिस साँप से चलता है बहुत बच के सपेरा |


तनहाई के जीने पे क्या करता है चोटें

गाता हुआ बरसात की रातों का अँधेरा |


आने लगे दौलत के पुजारी को ख़ुदा तक

बुतखाने की गलियों मं लगाता हुआ फेरा |


पल्ले में ’नजीर’ अपने न दुनिया है न उक्बा 

लूटे भी तो क्या लूट के ले जाये लुटेरा |


     चार 

हर तबस्सुम एक तोहमत हर हॅँसी इल्जाम है |

जिन्दगी के देने वाले जिन्दगी बदनाम है |


हमको क्या मालूम कैसी सुबह कैसी शाम है 

जिन्दगी इक कर्ज़ है, भरना हमारा काम है |


मैं हूँ और घर की उदासी है, सुकूते शाम है 

जिन्दगी ये है तो आखिर मौत किसका नाम है |


मेरी हर लगजिश  में थे तुम भी बराबर के शरीक

बन्दा परवर सिर्फ बन्दे ही पे क्यों इल्जाम है |


मुझको है शर्मिन्दगी इसकी कि मेरे साथ-साथ

कातिबे तकदीर [3] तेरा भी कलम बदनाम है |


सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज था, सर रख दिया

आबरू रखना न रखना ये तुम्हारा काम है |


क्या कोठ्र ईनाम भी लेता है वापस ऐ खुदा

जिन्दगी लेता है क्यों वापस अगर ईनाम है |


जिन्दगी का बोझ उठा लेना हमारा काम था

हमको अब मंज़िल पे पहुँचाना तुम्हारा काम है |


खुशनसीबी ये कि खत से खैरियत पूछी गयी

बदनसीबी ये कि खत भी दूसरे के नाम है |


क्या नुमायाँ चूक साकी से हुठ है ऐ ’नजीर’

उसको भूला है सरे फेहरिस्त जिसका नाम है |

      पांच 

सूखती शाखों में फिर दम आ गया|

आइये फागुन का मौसम आ गया |


आम की डाली पे कोयल आ गयी

फस्ल के बाजू में दम-खम आ गया |


तुम भी आ जाआ चमन का फूल-फूल

जिन्दगी का ले के परचम आ गया |


लोग लहरा कर गले मिलने लगे

दिल के दरियाओं का संगम आ गया |


मुस्कुरायी सुबह की पहली किरन

आने वाला ऐ शबेगम आ गया |


कर सके खुलकर न दो बातें कभी

जब वो आये एक आलम आ गया |


इश्क ने कुछ इस तरह अँगड़ाई ली

जुल्फे बेपरवा में भी खम आ गया |


दिलजले के पास तुम क्या आ गये

जेठ में सावन का मौसम आ गया |


इक तुम्हारी बात रखने को ’नजीर’

अपनी महफिल कर के बरहम आ गया|

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