नजीर बनारसी
एक
कभी ख़ामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे |
मैं उतना याद आऊँगा मुझे जितना भुलाओगे |
कोई जब पूछ बैठेगा ख़ामोशी का सबब तुमसे
बहुत समझाना चाहोगे मगर समझा ना पाओगे |
कभी दुनिया मुक्कमल बन के आएगी निगाहों में
कभी मेरे कमी दुनिया की हर इक शै में पाओगे |
कहीं पर भी रहें हम तुम मुहब्बत फिर मुहब्बत है
तुम्हें हम याद आयेंगे हमें तुम याद आओगे |
दो
बादल की तरह झूम के लहरा के पियेंगे |
साक़ी तेरे मैख़ाने पे हम छा के पियेंगे |
उन मदभरी आँखों को भी शर्मा के पियेंगे
पैमाने को पैमाने से टकरा के पियेंगे |
बादल भी है, बादा भी है, मीना भी है, तुम भी
इतराने का मौसम है अब इतराके पियेंगे |
देखेंगे कि आता है किधर से ग़म-ए-दुनिया
साक़ी तुझे हम सामने बिठला के पियेंगे|
तीन
गेसू है कि भादों का घटाटोप अँधेरा |
हँसता हुआ मुखड़ा है कि पनघट का सवेरा |
हर वर्क के लब पर किसी राधा का तबस्सुम
हर घन की गरज में किसी घनश्याम का डेरा |
ये सरमई आँचल ये दमकते हुए आरिज
तुम शाम अवध की तुम्हीं काशी का सवेरा |
मालूम नहीं कौन सा जादू है नज़र में
जो सामने आता है वो हो जाता है तेरा |
हम कब से लिये बैठे हैं अरमानों की दौलत
मिलता ही नहीं कोई करीने का लुटेरा |
डरता हूँ कि डस न ले सपेरे को वही साँप
जिस साँप से चलता है बहुत बच के सपेरा |
तनहाई के जीने पे क्या करता है चोटें
गाता हुआ बरसात की रातों का अँधेरा |
आने लगे दौलत के पुजारी को ख़ुदा तक
बुतखाने की गलियों मं लगाता हुआ फेरा |
पल्ले में ’नजीर’ अपने न दुनिया है न उक्बा
लूटे भी तो क्या लूट के ले जाये लुटेरा |
चार
हर तबस्सुम एक तोहमत हर हॅँसी इल्जाम है |
जिन्दगी के देने वाले जिन्दगी बदनाम है |
हमको क्या मालूम कैसी सुबह कैसी शाम है
जिन्दगी इक कर्ज़ है, भरना हमारा काम है |
मैं हूँ और घर की उदासी है, सुकूते शाम है
जिन्दगी ये है तो आखिर मौत किसका नाम है |
मेरी हर लगजिश में थे तुम भी बराबर के शरीक
बन्दा परवर सिर्फ बन्दे ही पे क्यों इल्जाम है |
मुझको है शर्मिन्दगी इसकी कि मेरे साथ-साथ
कातिबे तकदीर [3] तेरा भी कलम बदनाम है |
सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज था, सर रख दिया
आबरू रखना न रखना ये तुम्हारा काम है |
क्या कोठ्र ईनाम भी लेता है वापस ऐ खुदा
जिन्दगी लेता है क्यों वापस अगर ईनाम है |
जिन्दगी का बोझ उठा लेना हमारा काम था
हमको अब मंज़िल पे पहुँचाना तुम्हारा काम है |
खुशनसीबी ये कि खत से खैरियत पूछी गयी
बदनसीबी ये कि खत भी दूसरे के नाम है |
क्या नुमायाँ चूक साकी से हुठ है ऐ ’नजीर’
उसको भूला है सरे फेहरिस्त जिसका नाम है |
पांच
सूखती शाखों में फिर दम आ गया|
आइये फागुन का मौसम आ गया |
आम की डाली पे कोयल आ गयी
फस्ल के बाजू में दम-खम आ गया |
तुम भी आ जाआ चमन का फूल-फूल
जिन्दगी का ले के परचम आ गया |
लोग लहरा कर गले मिलने लगे
दिल के दरियाओं का संगम आ गया |
मुस्कुरायी सुबह की पहली किरन
आने वाला ऐ शबेगम आ गया |
कर सके खुलकर न दो बातें कभी
जब वो आये एक आलम आ गया |
इश्क ने कुछ इस तरह अँगड़ाई ली
जुल्फे बेपरवा में भी खम आ गया |
दिलजले के पास तुम क्या आ गये
जेठ में सावन का मौसम आ गया |
इक तुम्हारी बात रखने को ’नजीर’
अपनी महफिल कर के बरहम आ गया|
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