निश्तर ख़ानक़ाही
एक
छोड़ो मोह! यहाँ तो मन को बेकल बनना पड़ता है | मस्तों के मयख़ाने को भी मक़तल बनना पड़ता है |
सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या? पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है |
जलते दिए को लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या? कैसी-कैसी झेल के बिपता, काजल बनना पड़ता है |
'मीर' कोई था 'मीरा कोई लेकिन उनकी बात अलग इश्क़ न करना, इश्क़ में प्यारे पागल बनना पड़ता है |
शहर नहीं थे, गाँव से पहले जंगल बनना पड़ता है |
"निश्तर" साहब! हमसे पूछो, हमने ज़र्बे झेली हैं घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है |
दो
छत से उतरा साथी इक |
मैं और नन्हा पंछी इक |
सूरज निकला पाया क्या ?
गुमसुम रात की रानी इक |
जीवन शहर दरिंदों का
याद अकेली नारी इक |
सारे घर को खोले कौन
सत्तर ताले , चाबी इक |
रोगी काया बरखा रुत
तन पर भीगी कमली इक |
खुद में तुझको जोडूँ आ
मैं भी एक हूँ ,तू भी इक |
तीन
अभी तक जब हमें जीना ना आया |
भरोसा क्या के कल आया न आया |
जले हम यूँ के जैसे चोब-ए-नम हों
चराग़ों की तरह जलना न आया |
ग़ुलेलें ला के बच्चे पूछते हैं
परिंदा क्यूँ वो दोबारा न आया |
मैं क्या कहता के सब के साथ में था
अयादत को भी वो तन्हा न आया |
इहाता चहार-दीवारी अँधेरा
किसी जानिब भी दरवाज़ा न आया |
वो पहले की तरह बिछड़ा है अब भी
मगर अब के हमें रोना न आया |
ख़जाना ले उड़ा चोरों का जत्था
पलट कर फिर अली-बाबा न आया |
चार
शहर में तेरे वो भी मौसम ऐ दिल आने वाले हैं |
आन मिले के रिश्तों को भी लोग भुलाने वाले हैं |
सोच के अपने ख़ालीपन को,बैन न कर हलकान न हो
ख़ुश्क नदी हम तेरे किनारे नीर बहाने वाले हैं |
आँखों में खामोश हुए अब शोर मचाते आँसू भी
हिज़्र की शब, बर्फ़ीली रुत, सन्नाटे छाने वाले हैं |
आना-जाना लगा रहेगा, तेरी बज़्म सजी रहे
कितने यार सिधार गए, अब हम भी जाने वाले हैं |
सोच रहे थे बंद हवा की दावत दें तो कैसे दें
हमने देखा कुछ दीवाने दीप जलाने वाले हैं |
बीत गया बरसात का मौसम और उन्हें अब लिखूँ क्या
जाड़ों के मेहमान परिंदे, लौट के आने वाले हैं |
पांच
शहर बरहना, गुंग पड़े हैं, सूने करघे, कौन बुने |
जितने धागे टूट गए हैं,उतने धागे कौन बुने |
जिस्मों पर पौशाक हो लेकिन आँखें नंगी बेहतर हैं
जिनको रोज उधड़ना ठहरा, ऐसे सपने कौन बुने |
पहला धागा ठीक पड़ा था, आगे आए झोल-ही-झोल
कौन उधेड़े दुनिया तुझको, नए सिरे से कौन बुने |
कुनबे वाले अच्छे हैं, पर खोट जो है सो हममें है
अपने आपको धोखा देकर झूठे सपने कौन बुने |
नर्म मुलायम ज़ानू* जैसे लगते थे सर रखते ही
रंग-बिरंगे रेशम से अब वैसे तकिए कौन बुने |
जाने वाले छोड़ गए उलझाव हमारे हिस्से का
कौन निकाले अपनी राहें, अगले रस्ते कौन बुने |
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