शनिवार, 10 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 23- निश्तर खानकाही



 निश्तर ख़ानक़ाही

एक 

छोड़ो मोह! यहाँ तो मन को बेकल बनना पड़ता है |                                                                                               मस्तों के मयख़ाने को भी मक़तल बनना पड़ता है |


सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?                                                                                        पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है |


जलते दिए को लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?                                                                                              कैसी-कैसी झेल के बिपता, काजल बनना पड़ता है |


'मीर' कोई था 'मीरा कोई लेकिन उनकी बात अलग                                                                                              इश्क़ न करना, इश्क़ में प्यारे पागल बनना पड़ता है |


शहर नहीं थे, गाँव से पहले जंगल बनना पड़ता है |                                                                                              

"निश्तर" साहब! हमसे पूछो, हमने ज़र्बे झेली हैं                                                                                                घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है |

    दो 

छत से उतरा साथी इक |

मैं और नन्हा पंछी इक |


सूरज निकला पाया क्या ?

गुमसुम रात की रानी इक |


जीवन शहर दरिंदों का

याद अकेली नारी इक |


सारे घर को खोले कौन

सत्तर ताले , चाबी इक |


रोगी काया बरखा रुत

तन पर भीगी कमली इक |


खुद में तुझको जोडूँ आ

मैं भी एक हूँ ,तू भी इक |

           तीन 


अभी तक जब हमें जीना ना आया |

भरोसा क्या के कल आया न आया |


जले हम यूँ के जैसे चोब-ए-नम हों

चराग़ों की तरह जलना न आया |


ग़ुलेलें ला के बच्चे पूछते हैं

परिंदा क्यूँ वो दोबारा न आया |


मैं क्या कहता के सब के साथ में था

अयादत को भी वो तन्हा न आया |


इहाता चहार-दीवारी अँधेरा

किसी जानिब भी दरवाज़ा न आया |


वो पहले की तरह बिछड़ा है अब भी

मगर अब के हमें रोना न आया |


ख़जाना ले उड़ा चोरों का जत्था

पलट कर फिर अली-बाबा न आया |

            चार 

शहर में तेरे वो भी मौसम ऐ दिल आने वाले हैं |

आन मिले के रिश्तों को भी लोग भुलाने वाले हैं |


सोच के अपने ख़ालीपन को,बैन न कर हलकान न हो

ख़ुश्क नदी हम तेरे किनारे नीर बहाने वाले हैं |


आँखों में खामोश हुए अब शोर मचाते आँसू भी

हिज़्र की शब, बर्फ़ीली रुत, सन्नाटे छाने वाले हैं |


आना-जाना लगा रहेगा, तेरी बज़्म सजी रहे

कितने यार सिधार गए, अब हम भी जाने वाले हैं |


सोच रहे थे बंद हवा की दावत दें तो कैसे दें

हमने देखा कुछ दीवाने दीप जलाने वाले हैं |


बीत गया बरसात का मौसम और उन्हें अब लिखूँ क्या

जाड़ों के मेहमान परिंदे, लौट के आने वाले हैं |

                  पांच 

शहर बरहना, गुंग पड़े हैं, सूने करघे, कौन बुने |

जितने धागे टूट गए हैं,उतने धागे कौन बुने |


जिस्मों पर पौशाक हो लेकिन आँखें नंगी बेहतर हैं

जिनको रोज उधड़ना ठहरा, ऐसे सपने कौन बुने |


पहला धागा ठीक पड़ा था, आगे आए झोल-ही-झोल

कौन उधेड़े दुनिया तुझको, नए सिरे से कौन बुने |


कुनबे वाले अच्छे हैं, पर खोट जो है सो हममें है

अपने आपको धोखा देकर झूठे सपने कौन बुने |


नर्म मुलायम ज़ानू* जैसे लगते थे सर रखते ही

रंग-बिरंगे रेशम से अब वैसे तकिए कौन बुने |


जाने वाले छोड़ गए उलझाव हमारे हिस्से का

कौन निकाले अपनी राहें, अगले रस्ते कौन बुने |






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