रविवार, 11 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 24-दुष्यंत कुमार


 

दुष्यंत कुमार

इस मोड़ से तुम मुड़ गई फिर राह सूनी हो गई।


मालूम था मुझको कि हर धारा नदी होती नहीं

हर वृक्ष की हर शाख फूलों से लदी होती नहीं

फिर भी लगा जब तक क़दम आगे बढ़ाऊँगा नहीं,

कैसे कटेगा रास्ता यदि गुनगुनाऊँगा नहीं,


यह सोचकर सारा सफ़र, मैं इस क़दर धीरे चला

लेकिन तुम्हारे साथ फिर रफ़्तार दूनी हो गई!



तुमसे नहीं कोई गिला, हाँ, मन बहुत संतप्त है,

हर एक आँचल प्यार देने को नहीं अभिशप्त है,

हर एक की करुणा यहाँ पर काव्य की थाती नहीं

हर एक की पीड़ा यहाँ संगीत बन पाती नहीं 


मैंने बहुत चाहा कि अपने आँसुओं को सोख लूँ

तड़पन मगर उस बार से इस बार दूनी हो गई।


जाने यहाँ, इस राह के, इस मोड़ पर है क्या वजह

हर स्वप्न टूटा इस जगह, हर साथ छूटा इस जगह

इस बार मेरी कल्पना ने फिर वही सपने बुने,

इस बार भी मैंने वही कलियाँ चुनी, काँटे चुने,


मैंने तो बड़ी उम्मीद से तेरी तरफ देखा मगर

जो लग रही थी ज़िन्दगी दुश्वार दूनी हो गई!

                दो 


भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।


मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह

ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ ।


गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही

पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ ।


क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ

लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ ।


आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को

आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला ।


इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो

जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ ।


दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ ।


इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ ।


                   तीन 


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।


                    चार 

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,

घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।


एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,

आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।


अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,

यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।


वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,

कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।


ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,

रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।


राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,

राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।

            पांच 


जो मरुस्थल आज अश्रु भिगो रहे हैं,

भावना के बीज जिस पर बो रहे हैं,

सिर्फ़ मृग-छलना नहीं वह चमचमाती रेत!


क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन?

सूर्य की पहली किरन पहचानता है कौन?

अर्थ कल लेंगे हमारे आज के संकेत।


तुम न मानो शब्द कोई है न नामुमकिन

कल उगेंगे चाँद-तारे, कल उगेगा दिन,

कल फ़सल देंगे समय को, यही ‘बंजर खेत’।




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