शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

जनवादी गीत संग्रह : 'लाल स्याही के गीत' 28- ब्रजपाल सिंह 'ब्रज'

 

ब्रजपाल सिंह ब्रज 

              एक 

जात पात और ऊँच नीच में जो ना करते बंटवारा | 

हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||


ब्राह्मण क्षत्री वैश्य शूद्र 

ये वर्ण विधान बनाया |

नहीं गुणों से श्रेष्ठ मानव,

जन्म से महान बताया |

ये नहीं समझ आया कैसे रहेगा भाईचारा  |

हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||


ब्राह्मण बोलेगा,वैश्य तोलेगा, 

क्षत्री संग्राम करेंगे  |

इन सबकी चाकरी और सेवा 

शूद्र तमाम करेंगे |

सब विश्राम करेंगे,फिरेगा शूद्र ही मारा मारा  |

हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||


पशु और मलमूत्र भी उनका 

शास्त्रों में अछूत नहीं है 

किन्तु शूद्र स्वस्थ,ज्ञानी 

हो कर भी छूत नहीं है  

क्या ये काली करतूत नहीं जो बिन शास्त्रों के मारा |

हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||


दान वीरता की जय जिसकी 

गुंजी थी अम्बर में |

सूत पूत कह रोक दिया वो 

द्रोपदी के स्वयंवर में |

श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य भी छला गया बेचारा |

हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||


देना था वरदान कर्ण को 

दे दिया शाप अनूठा |

गुरु ड्रोन ने एकलव्य का 

कटवा लिया अगूंठा |

ये कथन नहीं झूठा,स्वयंवर का होता अलग नजारा |

हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||


                       दो 

तोड़ सको तो जाती धर्म की डालो तोड़ दीवारों को |

तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||


ना कोई हिन्दू ना कोई मुस्लिम 

ना कोई सिख ईसाई है |

शोषित पीड़ित भूखे नंगें 

सब आपस में भाई हैं |

ऊँच नीच और छूआछूत के कर दो दूर विकारों को |

तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||


अस्थि रुधिर और मांस एक है 

एक सा है चेहरा मोहरा |

बस इतना सा फर्क बावले 

कोई काला कोई है गोरा |

चुन चुन कर तुम गले लगा लो ब्राह्मण और कहारों को |

तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||


जागो उठो और मारो, दो 

राज बदल और ताज बदल |

चाहें बहे खून की नदियाँ 

तुम सडकों पर रहो अटल |

महलों पर कब्ज़ा कर लो और लूटों सब दीनारों को 

तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||


संभव नहीं है समाधान 

संविधान और शान्ति से |

अपने सब अधिकार मिलेंगे 

तुमको केवल क्रान्ति से |

चढ़ा शान पे धार लगा लो जंग लगी तलवारों को 

तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||


               तीन 


ना कविता ना गीत गजल ना कथा सुनाने आया हूँ |

मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ || 


बचपन से जिनके हाथों में खुरपी और कुदाली है 

परती धरती जोट जोट डैम तोड़ चुका जो हाली है |

और झूठन पर मनती जिनकी होली और दीवाली है 

सत्ता जिन पर बहा रही अब भी आंसू घड़ियाली है |


मैं उन जिन्दा लाशों में अब प्राण फूंकने आया हूँ |

मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ || 



जिनकी नरम हथेली में बस गांठें हैं और छाले हैं 

रस्सी पर चढ़कर दिखा रहे जो करतब नए निराले हैं |

जिनके पैरों में जंजीरें हैं और जुबान पर ताले हैं

जो रहें अंधेरी झुग्गी में महलों में करें उजाले हैं |


उनको उनकी ताकत का एहसास कराने आया हूँ |

मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ || 



मेरी कलम भी मौन रही फिर परिवर्तन कैसे आएगा 

मैं भी गर सो गया यहां फिर उनको कौन जगायेगा ?

दबी दिलों में चिंगारी जो शोला कौन बनाएगा 

कौन मशाल कुदाली वाले हाथों में पकडायेगा ? 


सब जाग जाएँ अब जंग होगी मैं ये समझाने आया हूँ |

मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ || 


पढ़े लिखे बेकार सड़क पर घूम रहे हैं नौजवान  

और खुदकुशी कर लेते हैं यहां अन्नदाता किसान |

सिर्फ शपथ लेने के आता काम यहां पर संविधान 

वोटों की खातिर जात धर्म में बांटा जाता हिन्दुस्तान |


कटा फटा नक्शा स्वदेश परिवेश दिखाने आया हूँ | 

मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ || 

















 






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