काका हाथरसी
1
नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और
शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने
कहँ ‘ काका ' कवि , दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर
मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में -
ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में
कहँ ‘ काका ' ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे
देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे
कहँ ‘ काका ' कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे
पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी
बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी
कहँ ‘ काका ' कविराय , करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा
चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘ काका ', बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं
बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा - दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘ काका ' कवि , भीमसेन पिद्दी से दिखते
कविवर ‘ दिनकर ’ छायावदी कविता लिखते
तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन - भर वंशी न बजाई
कहँ ‘ काका ' कवि , फूलचंद जी इतने भारी
दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी
खट्टे - खारी - खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन
चिलगोजा से नैन , शांता करतीं दंगा
नल पर नहातीं , गोदावरी , गोमती , गंगा
कहँ ‘ काका ' कवि , लज्जावती दहाड़ रही हैं
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं
अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया
‘ काका ' कोई - कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा
भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान
देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पानकिया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर
जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं 'कायर'
कहँ 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला
दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला'
भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच
अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच
पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया
पीकर के रावण सीता जी को हर लाया
कहँ 'काका' कविराय, सुरा की करो न निंदा
मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा
ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार
ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार
अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ
जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ
पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले
लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले
पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान
नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान
खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा
'डिब्बा' कहना चाहें, निकले मुँह से 'दिब्बा'
कहँ 'काका' कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ
मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ
प्रेम-वासना रोग में, सुरा रहे अनुकूल
सैंडिल-चप्पल-जूतियां, लगतीं जैसे फूल
लगतीं जैसे फूल, धूल झड़ जाये सिर की
बुद्धि शुद्ध हो जाये, खुले अक्कल की खिड़की
प्रजातंत्र में बिता रहे क्यों जीवन फ़ीका
बनो 'पियक्कड़चंद', स्वाद लो आज़ादी का
एक बार मद्रास में देखा जोश-ख़रोश
बीस पियक्कड़ मर गये, तीस हुये बेहोश
तीस हुये बेहोश, दवा दी जाने कैसी
वे भी सब मर गये, दवाई हो तो ऐसी
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