शनिवार, 17 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 29-क़तील शिफ़ाई



क़तील शिफ़ाई         

    एक 


शायद मेरे बदन की रुसवाई चाहता है |

दरवाज़ा मेरे घर का बीनाई चाहता है |


औक़ात-ए-ज़ब्त उस को ऐ चश्म-ए-तर बता दे

ये दिल समंदरों की गहराई चाहता है |


शहरों में वो घुटन है इस दौर में के इंसाँ

गुमनाम जंगलों की पुरवाई चाहता है |


कुछ ज़लज़ले समो कर ज़ंजीर की ख़नक में

इक रक़्स-ए-वालेहाना सौदाई चाहता है |


कुछ इस लिए भी अपने चर्चे हैं शहर भर में

इक पारसा हमारी रुसवाई चाहता है |


हर शख़्स की जबीं पर करते हैं रक़्स तारे

हर शख़्स ज़िंदगी की रानाई चाहता है |


अब छोड़ साथ मेरा ऐ याद-ए-नौ-जवानी

इस उम्र का मुसाफ़िर तंहाई चाहता है |


मैं जब 'क़तील' अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ

अब मेरा प्यार मुझ से दानाई चाहता है ||

                 दो 

यूँ चुप रहना ठीक नहीं कोई मीठी बात करो |

मोर चकोर पपीहा कोयल सब को मात करो |


सावन तो मन बगिया से बिन बरसे बीत गया

रस में डूबे नग़्मे की अब तुम बरसात करो |


हिज्र की इक लम्बी मंज़िल को जानेवाला हूँ 

अपनी यादों के कुछ साये मेरे साथ करो |


मैं किरनों की कलियाँ चुनकर सेज बना लूँगा

तुम मुखड़े का चाँद जलाओ रौशन रात करो |


प्यार बुरी शय नहीं है लेकिन फिर भी यार "क़तील"

गली-गली तक़सीम न तुम अपने जज़बात करो |

                   तीन 

मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा ?

आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा |


पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से

रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बतायेगा |


लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है

पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जायेगा |


दिन में हँसकर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं

एक भयानक सपना मुझको सारी रात डरायेगा |


मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना

गाली देगी दुनिया तुझको सर मेरा झुक जायेगा |


सूख गई जब इन आँखों में प्यार की नीली झील "क़तील"

तेरे दर्द का ज़र्द समन्दर काहे शोर मचायेगा |

                   चार 

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको |

मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको  |


मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी

ये तेरी सादादिली मार न डाले मुझको |


मैं समंदर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोताज़न भी

कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको |


तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी

ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको |


कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ

जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझको |


ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन-दामन

कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको |


मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन

मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको |


मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे

तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझको |


तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम

तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको |


वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ "क़तील"

शर्त ये है कोई बाँहों में सम्भाले मुझको |

             पांच 


मुझे आई ना जग से लाज

मैं इतना ज़ोर से नाची आज,

के घुंघरू टूट गए |


कुछ मुझ पे नया जोबन भी था

कुछ प्यार का पागलपन भी था

कभी पलक पलक मेरी तीर बनी

एक जुल्फ मेरी ज़ंजीर बनी

लिया दिल साजन का जीत

वो छेड़े पायलिया ने गीत,

के घुंघरू टूट गए |



मैं बसी थी जिसके सपनों में

वो गिनेगा अब मुझे अपनों में

कहती है मेरी हर अंगड़ाई

मैं पिया की नींद चुरा लायी

मैं बन के गई थी चोर

मगर मेरी पायल थी कमज़ोर,

के घुंघरू टूट गए |



धरती पे ना मेरे पैर लगे

बिन पिया मुझे सब गैर लगे

मुझे अंग मिले अरमानों के

मुझे पंख मिले परवानों के

जब मिला पिया का गाँव

तो ऐसा लचका मेरा पांव

के घुंघरू टूट गए |


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