सोमवार, 19 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 30-वीरेंद्र अबोध

   


वीरेंद्र अबोध 


एक - बापू का खत 

बेटे! कन्धे के फावडे ने कमर को झुका दिया 

महलों ने कटिया का दीपक बुझा दिया 

सोचा था शहर जाकर कुछ तू पैसे कमायेगा 

गिरवी धरा अपना पुश्तैनी मकान छुडायेगा, 

तेरी पढायी के लिये ही तो कर्जा करा था, 

तेरी बाबा की तेरहवीं में मकान गिरवी धरा था, 

मेरी जिन्दगी क्या वो तो आधी अधूरी है, 

मकान के लिये महाजन की गले पर छुरी है,

मकान के लिये जालिम ने ऐसा दॉंव पेंच किया 

कि मैंने अपना वो पीपल वाला खेत बेच दिया, 

खेत बेचकर मैं बहुत दिनों तक बहुत रोया, 

मैंने घर की इज्जत बचायी खेत खोया, 

दुःख है उसने खेत को टुकडों में बॉंट दिया 

मैं जिसे पूजता था वो पीपल काट दिया।


अब तो बेटे जिन्दगी का बडा ही बुरा हाल है, 

मेरी उसकी बात क्या सारा गॉंव कंगाल है, 

तुझे पता है भाईओं ने बटवारे में कैसी दगा दी,

तेरे ताउ ने खलिहान में आग लगा दी ,

अब कि बार बुआई का भी समय गुजर गया, 

क्योंकि ऐन वक्त पर काला बैल मर गया,

ऐसी खेती बाडी से तो मन उब गया, 

पका पकाया धान पानी में डूब गया, 

अब जाडे में आकर कच्चे कोठे की छत पाटी है,

बरसात तो रो रोकर कच्चे छप्पर में काटी है |

 

हमारे लिये कंगाली में गीला आटा हो गया, 

और मझला बीमारी में सूखकर कॉंटा हो गया 

उसकी बीमारी में तो तेरी मॉं भी टिक गयी, 

उसकी बीमारी में वो गाय भी बिक गयी,

इन सब बातों ने परिवार की कमर तोड दी 

मजबूरी में छोटू ने भी पढाई छोड दी 

भोले शंकर ने भी न बेडा पार लगाया 

मैं तो बेटा कर्जे से कॉंवड भी लाया ।


अब तो घर की बडी बुरी कहानी हो गयी, 

तेरी सबसे छोटी बहन भी सयानी हो गयी, 

अब तो हर दम घर में उसी का ही जिकर रहता है, 

हमें तो उंच  नीच होने का फिकर रहता है,

तेरी मॉं रात दिन मुझसे ही लड रही है, 

कि देखो जमाने की हालत बिगड रही है, 

अब तू अगर इसमें कुछ हाथ बटा दे 

तो जल्दी से तेरी बहन उठा दें। 


अब किसकी किसकी विपदा तुझको ओर सुनाऊं  

किस किस के तुझको दुःख गिनवाऊं ,

अब तो गॉंव में रोज रोज पुलिस आती है 

किसी न किसी की कुडकी कर ले जाती है, 

किसी के घर में एक किसी के आधी रोटी है, 

धन्नू की बेटी पर परधान की नजरें खोटी हैं 

गंगू के घर में परधान ने मंगू बसा दिया 

और गंगू को रहजनी के केस मे फंसा दिया 

सारे गॉंव में बेटा गरीबी घर कर गयी, 

दीनू की मॉं भूख से तडफ कर मर गयी 

गंगू की भैंस को जंगल में सॉंप डस गया 

और तेरा काका कत्ल केस में फॅंस गया, 

बेईमान छंगा ने भाई को कच्चा चबा लिया 

ओर मंगू ने कविजी का घेर दबा लिया। 


छज्जू की बहु को दमा रोग पलट गया 

छज्जू का दॉंया हाथ गडॉंसे में कट गया

कलवा ने धनिया की लडकी भगा दी, 

धनिया ने कलवा के छप्पर मे आग लगा दी 

वैसे तो चोरों से बचने के लिये गॉंव में पहरा होता था, 

मलवा मक्का की रखवाली को मचान पर सोता था, 

पहरा रहते गॉंव लुट गया हम सब हार गये 

वे जाते जाते बेचारे कलवा को मार गये । 


एक दिन जमींदार के लडकों ने बडा चाला किया, 

घास लेने गयी हीरा की बेटी से मुह काला किया, 

बेचारी घर रात को आयी हर कपडा उतार दिया, 

विरोध करने पर उसके भाई को भाले से मार दिया। 


अब तो बेटे सब भूखे हैं रखवाला भगवान है 

मेरी उसकी बात क्या सारा गॉंव परेशान है 

गले लगते भी किसी का चेहरा नहीं खिलता 

आटा किसी घर से भी उधार नहीं मिलता

तुझको लिखता हूँ  मेरी चिटठी पर ध्यान धरना, 

जैसे भी हो कुछ रूपयो का इन्तजाम करना।

                  दो : सुखिया 

गरीबी अपना असर कर गयी है 

सुखिया के हँसियां की धार मर गयी है

गेहूँ काटते हाथों में छाले पड़े हैं 

फिर भी उसे रोटी के लाले पड़े हैं 

अपने बच्चों को पढ़ाये वो कैसे 

किताबों में नजरें गढ़ाए वो कैसे 

उसकी तमाम जिंदगी दुखों में कटी है 

पांवों में उसके बिवाई फटी है 

सुखियाँ में कहाँ वासना जगी है 

बच्चे कहते मजान भूख लगी है 

अब बच्चों का भविष्य कैसे खिलेगा ?

पता नहीं खाना कल भी मिलेगा 

कहाँ तक करूँ उसकी दीनता का वरन 

सब्जी के कब होते हैं दर्शन 

खाता है वो रूखा और सूखा 

अक्सर ही रह जाता है वो भूखा 

गांव का पंडित भी बहकता है उसको 

भाग्य का पाठ पढ़ता है उसको 

धर्म का सवार आज भूत है उस पर 

महाजन का शिकंजा भी मजबूत है उस पर 

तो सुखिया ने मुझको ये भाव दिया है 

मैंने तो अब ये निश्चय किया है 

मैं तो मजदूरों के लक्ष्य का लिखूंगा 

मैं तो सुखिया के पक्ष में लिखूंगा 

बुला पुलिस को पकड़वा दो मुझको 

चाहे जंजीरों में जकड़वा दो मुझको 

अगर मैं तुम्हारी जेलों में रहूँगा 

तो वहाँ भी सुखिया की दीनता कहूंगा 

मेरी जुबा पे अब रोक नहीं है 

तुम्हारी हथकड़ियों का खौफ नहीं है 

सुखिया का हँसियां अब यूं ही चलेगा 

खपरैलों से ही अब खून बहेगा

रोटी के लिए ही युद्ध ठनेगा  

सुखिया का हँसियां ही हथियार बनेगा |



 


                                           - वीरेन्द्र अबोध


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