रविवार, 7 अगस्त 2011

ज्ञान चन्द्र 'निर्जन' की कविता 'भीख'












           भीख 
वह देखो कमला का स्वामी 
पथ पर बैठी के बरतन में |
हाथों से सिक्का डाल रहा 
मुख टपका विष राल रहा | 

भिक्षा की झोली  फैलाते यदि अंग छिपाया दिख जाए| 
तो समझेगा वह धन्य हुआ दानी बनाने का पुण्य पाए|
बाहर से जतला दया, देख -
अन्दर, से उभरी खाल रहा|  
हाथों से सिक्का डाल रहा 
मुख टपका विष राल रहा | 
अहसान भार से दबी हुई, बेकस यह को   मुख को सिये हुए| 
पशु क्रीडा -को हो विवश अत:, कर बीच अठन्नी लिए हुए|
        मदिरा वेश्या  का धसकी वह 
        रच, अबला से छल जाल रहा |
        हाथों से सिक्का डाल रहा 
        मुख टपका विष राल रहा | 

नित दया धर्म की छाया में,यों धन आखेट किया करता | 
गंगा में धुलता हुआ बदन निर्धन का खून पिया करता |
         ईश्वर भी मंदिर के अन्दर 
        धन  की ही  कर रखवाल रहा| 
        हाथों में सिक्का डाल रहा 
        मुख  से टपका विष राल रहा| 
                                    पथ के बैठी के बर्तन के बरतन में |


                                                                                    -ज्ञान चन्द्र'निर्जन'
[  एक काव्य पुस्तिका 'अरुणबेला' 1943 की छपी हुई  प्राप्त हुई है जिसमें कवि ज्ञान चन्द्र 'निर्जन'  की कविताएँ प्रकाशित हैं |पुस्तिका से इतना ही ज्ञात होता है कि उस समय  कवि मेरठ कॉलिज मेरठ में एल. एल. बी. का विद्यार्थी है और त्यागी हास्टल में रह रहा है | कवि विषयक अन्य जानकारी नहीं है | पुस्तिका  की भूमिका डॉ० विश्वनाथ मिश्र ने लिखी है जो उस समय अध्यक्ष हिंदी विभाग एस. एस. डी कॉलिज मुजफ्फर नगर थे | किसी के पास उक्त विषयक अधिक जानकारी हो तो अवगत कराने  का कष्ट करें |]
                                                                                      - अमरनाथ  'मधुर'     
                                                                               [amarnath'madhur' @gmail.com
                                                                               mo.no. 9457266975  
  



1 टिप्पणी:

  1. मेरठ कालेज के एक पूर्व छात्र की उत्तम कविता से परिचित कराने हेतु धन्यवाद।

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