भीख
वह देखो कमला का स्वामी
पथ पर बैठी के बरतन में |
हाथों से सिक्का डाल रहा
मुख टपका विष राल रहा |
तो समझेगा वह धन्य हुआ दानी बनाने का पुण्य पाए|
बाहर से जतला दया, देख -अन्दर, से उभरी खाल रहा|
हाथों से सिक्का डाल रहा
मुख टपका विष राल रहा |
अहसान भार से दबी हुई, बेकस यह को मुख को सिये हुए| पशु क्रीडा -को हो विवश अत:, कर बीच अठन्नी लिए हुए|
मदिरा वेश्या का धसकी वह
रच, अबला से छल जाल रहा |
हाथों से सिक्का डाल रहा
मुख टपका विष राल रहा |
नित दया धर्म की छाया में,यों धन आखेट किया करता |
गंगा में धुलता हुआ बदन निर्धन का खून पिया करता |
ईश्वर भी मंदिर के अन्दर
धन की ही कर रखवाल रहा|
हाथों में सिक्का डाल रहा
मुख से टपका विष राल रहा|
पथ के बैठी के बर्तन के बरतन में |
-ज्ञान चन्द्र'निर्जन'
[ एक काव्य पुस्तिका 'अरुणबेला' 1943 की छपी हुई प्राप्त हुई है जिसमें कवि ज्ञान चन्द्र 'निर्जन' की कविताएँ प्रकाशित हैं |पुस्तिका से इतना ही ज्ञात होता है कि उस समय कवि मेरठ कॉलिज मेरठ में एल. एल. बी. का विद्यार्थी है और त्यागी हास्टल में रह रहा है | कवि विषयक अन्य जानकारी नहीं है | पुस्तिका की भूमिका डॉ० विश्वनाथ मिश्र ने लिखी है जो उस समय अध्यक्ष हिंदी विभाग एस. एस. डी कॉलिज मुजफ्फर नगर थे | किसी के पास उक्त विषयक अधिक जानकारी हो तो अवगत कराने का कष्ट करें |]
- अमरनाथ 'मधुर' [amarnath'madhur' @gmail.com
mo.no. 9457266975
मेरठ कालेज के एक पूर्व छात्र की उत्तम कविता से परिचित कराने हेतु धन्यवाद।
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